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दिगम्बर जैन साधू
ब्र० श्री कौशलजी
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मई सन् १९४१ में सुसम्पन्न एवं प्रतिष्ठित घराने . में माता शकुन्तलावती की कोख से ननिहाल में उक्त 'बालिका का जन्म हुआ। माता स्वास्तिका भेटल वर्स जगाधरी वालों की बहन है । पिता पानीपत में कपड़े का बड़ा व्यापार करते हैं तथा बड़ा जमींदारा है। पहले कई सन्तानों के निधन होने के कारण मां-बाप को सदा आशंका बनी रहती कि कहीं उनकी लाडली बच्ची को कुछ हो न जायें । जन्म से मां के धार्मिक संस्कारों की छाया में पनपी यह बालिका सदैव सफाई प्रिय, तड़क-भड़कीले वस्त्रों से उपेक्षित तथा सात्विक वृत्ति परायण थी। पूर्व संस्कारवश
कभी इसने अपने होश में रात्रि में अथवा विना देव दर्शन किये भोजन ग्रहण नहीं किया। किसी की तनिक सी पीड़ा देख करुणा से भर विह्वल हो जाती । घर में सर्व भौतिक साधनों की सुलभता होने पर भी अपने में खोई-खोई सी कुछ अनमनी सी रहती, मानों किसी अनदेखी वस्तु को पाने की चाह सीने में छिपाये हो । एक वर्ष में दो-दो कक्षाओं को सरलता से उत्तीर्ण कर विद्याध्ययन में तीव्रगति से आगे-आगे पढ़कर शिक्षकवर्ग को आश्चर्यान्वित कर दिया तथा बोर्ड की परीक्षायें सहजता से श्रेष्ठ अंकों में पास कर. लीं। बुद्धि की इस कुशाग्रता व कुशलता के कारण ही पिता ने "कौशल" नाम रख दिया। पढ़ने की तीन लगन व सरल स्वभाव एवं सेवाभाव आदि गुणों के कारण शीघ्र ही यह सभी की लाडली बन गयी।
छुट्टियों के दिन थे। तेज गर्मी थी । पानीपत में कुछ माताओं को लघु सिद्धान्त प्रवेशिका का · प्रशिक्षण शुरु किया था। इसकी मां ने सोचा कि यह बिटिया घर से कभी बाहर नहीं निकलती है, . इस शिक्षणं के निमित्त घर से बाहरं जायेगी और धर्म भी सीख लेगी तथा तत्पश्चात् मुझे भी समझा देगी। इस आशय से माता शिक्षण कक्षा में इसे भी अपने साथ ले जाने लगी । उसको क्या पता था कि इस बालिका का सीखना शब्दों में नहीं जीवन में है । कौन जाने कि आज दिन वह अपनी लाडली विटिया को अपने हाथों ही प्रभु को सौंपने ले आई है । असाधारण बुद्धि व ज्ञान पिपासा लख सभी कह उठे थे। कहा कि "यह कोई महानात्मा है" । पन्द्रह सोलह वर्ष की अल्पं आयु में इसने मन ही