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प्राचीन आचार्य परम्परा
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भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति :
हजार वर्ष तपश्चरण करते हुए भगवान को फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन केवलज्ञान प्रकट हो गया । इन्द्र की आज्ञा से कुवेर ने वारह योजन प्रमाण समवसरण की रचना की । समवसरण में वारह सभाओं में क्रम से १. सप्त ऋषि समन्वित गणधर देव और मुनिजन, २. कल्पवासी देवियाँ, ३. आर्यिकायें और श्राविकायें, ४. भवनवासी देवियाँ, ५. व्यन्तर देवियाँ, ६ ज्योतिष्क देवियाँ ७. भवनवासी देव, ८. व्यन्तर देव, ६. ज्योतिष्क देव, १०. कल्पवासी देव, ११ मनुष्य और १२. तिर्यच ये बैठकर उपदेश सुनते थे। पुरिमताल नगर के राजा श्री वृषभदेव भगवान के पुत्र वृपभसेन प्रथम गणधर हुए। ब्राह्मी भी आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में गणनी हो गयी। भगवान के समवशरण में २४ गणधर, ८४००० मुनि, ३५०००० आर्यिकायें, ३००००० श्रावक, ५००००० श्राविकायें, असंख्यात देव देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच उपदेश सुनते थे।
वृषभदेव का निर्वाण :
जब भगवान की प्रायु चौदह दिन शेष रही तव कैलाश पर्वत पर जाकर योगों का निरोध कर माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय भगवान पूर्व दिशा की ओर मुंह करके अनेक मुनियों के साथ सर्वकर्मों का नाश कर एक समय में सिद्ध लोक में जाकर विराजमान हो गये। उसी क्षण इन्द्रों ने आकर भगवान का निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया था, ऐसे ऋषभ जिनेन्द्र सदैव हमारी रक्षा करें।
भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष आठ माह और एक पक्ष व्यतीत हो जाने पर चतुर्थ काल प्रवेश करता है ।