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दिगम्बर जैन साधु
५०८ ] विराग की धारा :
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बचपन से ही माता-पिता का साया उठ जाने के कारण संसार की विचित्र दशा देखने का अवसर दो वर्ष की अल्पायु से आपको मिल रहा था । और यही कारण है कि भवभोगों की क्षणभंगुरता का उपदेश लेने आपको कहीं भटकना नहीं पड़ा । उदासीन चित्त पिंजड़े में कैद पंछी की तरह वैराग्य के लिये छटपटा रहा था।
कर्म महादुठ वैरी मेरो ता सेती दुख पावे । तन पिंजरे में बंध कियो मोहि यासो कौन छुड़ावे ।।
सो परिवार में किसी ने इतना साहस ही नहीं जुटा पाया कि आपको विवाह के लिये सहमत कर सके । बाल ब्रह्मचारी भंवरीलाल के जीवन की यह पहली विजय थी। मन में मंद-मंद मुस्कान लिए एक दिन वह वहां जा पहुंचा जहां उसके कर्मास्रवों के छिद्रों में रोक लगाने के लिये मुक्तिमार्ग के साक्षात् निदर्शक कृपालु संत पूज्य मुनि श्री विमलसागरजी म. विराजमान थे । एक उदासीन को मुनि श्री ने क्षुल्लक दीक्षा देकर वैराग्य संवर्द्धक उपदेश से भव्यों की मन पांखुड़ी खिला दी। उस दीक्षोत्सव को देखकर आपकी रुचि वैराग्य की ओर हो गई और व्यापार से विमुख होकर संघ में ही रहने लगे। इसी दरम्यान एक विचित्र घटना घट गई जिसने आपके विरागी जीवन धारा में प्रवाह ला दिया।
हुमा यह, एक बार आप क्षुल्लक शांतिसागरजी म. के साथ अजमेर की ओर वापिस आ रहे थे। मार्ग में पीसांगन ग्राम के समीप धर्म की शीतल छाया से सर्वथा अस्पृश्य, नवकार की मधुरिम ध्वनि से अस्नातित कर्ण वाले विषयासक्त दीर्घसंसारी साधु निंदकों ने क्षुल्लक श्री शोतलसागरजी म० को कुदुकवत् किलोल करते हुए गहरे कूप में फेंक दिया। सच ही कहा है दुर्जन व्यर्थ में शत्रुता करते हैं।
मृगमीन सज्जनानां तृण जल-संतोष विहितवृत्तीनाम । लुब्धक धीवर पिशुना निष्कारण वैरिणो जगति ॥
धर्म की महिमा का अचिंत्य प्रभाव, क्षुल्लकजी म. ने कुएं की दीवार पर लटके हलाहल विष वमन करने वाले काले भुजंग को रज्जु समझ कर पकड़ लिया और लटके रहे। श्रावकों ने उपसर्ग दूर कर जब आपको वहां से निकाला तो सर्प भी अदृश्य हो गया । इस घटना से जीवन और जगत के