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दिगम्बर जैन साधु नाम बदरी रखना बदरी। गांव की गलियों में खेलकर स्कूल पहुँचा तो पंडितजी ने पुकाराबद्रीप्रसाद।
स्कूल की पढ़ाई खत्म हुई तो बद्रीप्रसाद का जी गांव छोड़ने को मचलने लगा। किताबों के दो अक्षर पढ़ते ही उसने जान लिया कि जिन्दगी घर में खपाने के लिये नहीं पंचपरावर्तन मिटाने के लिये मिली है । जीवन को राह मिली पर गति बाकी थी। फिर मिला नेत्रों को सुखकारी पूज्यपाद प्रा० श्री विमलसागरजी म० का दर्शन और जीवन को मिली गति । आचार्य श्री ने भव्यात्मा पर अनुग्रह करते हुए क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। कुछ समय बाद सम्मेदशिखर में समस्त परिग्रहों को समाप्त करने वाली निर्ग्रन्थ मुनि दीक्षा प्रदान कर दी और आपका नाम 'कुन्थसागर' रखा। आप भी चारित्र की सीढ़ियों में स्थिर पग बढ़ाते हुए अपने नर जन्म की सफलता में जुट गये क्योंकि जीवन का सार चारित्र है । कहा भी है
थोवम्हि सिक्खदे जिणइ बहुसुदं जो चरित्त संपुण्णो। जो पुण चरितहीणो किं तस्य सुदेव बहुएण ।।
गुरु सेवा करते हुए आपने सतत् स्वाध्याय से जिनागम के रहस्य को हृदयङ्गम कर लिया तथा सुज्ञानदर्पण पुस्तक लिखकर अपनी विद्वत्ता से समाज को विदित कराया। जिन शासन की प्रभावना की।
मुनि श्री सुमतिसागरजी महाराज आपका गृहस्थ नाम श्री नत्थीलालजी था। पिता श्री छिद्दुलाल एवं माता श्री चिरोंजादेवी के आप लाड़ले पुत्र थे । ग्राम श्यामपुरा, परगना अम्वाह ( मुरैना ) में क्वार सुदी ६ सं० १९७५ को आपका जन्म हुआ। आप जायसवाल जैन हैं । आपकी पत्नी का नाम श्रीमती रामश्री देवी है। तीनभाई दो पुत्र और दो पुत्रियां आपकी हैं । भरे-पूरे परिवार को छोड़कर आपने दिगम्बर दीक्षा धारण की है।
श्रापकी बाल्य काल से ही धर्म में लगन थी। आप अपनी काश्तकारी तथा मामुली व्यापार करते थे आपका विवाह वि० सं० १९८४ में हुआ था और थोड़े दिन बाद ही आपको रामदुलारे डाकू हरण कर ले गया था। १४ दिन बाद आप उसके गिरोह से भाग आये । वि० सं० २०१० में आप