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दिगम्बर जैन साधु
क्ष० श्री वीरसागरजी महाराज साधु कभी विस्मय नहीं करते, पर क्षीणकाय हीरालाल जैन खबरा ग्रामवासी ( पन्ना) रत्नत्रय पाथेय की करबद्ध याचना करता जब सम्मुख आ ही गया तो शाश्वतं तीर्थराज सम्मेदगिरि की वंदना में निमीलित पलकें खोलते हुए आ० श्री सन्मतिसागरजी म० भी उसे क्षण भर बस निहारते ही रह गये । जिस तन को इंद्रियों के असहयोग का अंतिमेस्थम् मिल चुका हो उसकी अर्जी पर फैसला करना आसान काम न था। संयम को दुर्गम पगडंडियों को नापते हुए कहीं दुर्बल पैर लड़खड़ा न जाय यह दुविधा निर्णय की राह रोके अलग खड़ी थी। क्षण भर की शांति के बाद आचार्य श्री ने याचक की निश्छल आंखों में झांका तो अन्तस् की गहराई में उतरते ही चले गये और मिली कसमसाहट की झलक । पल भर में दुविधा का कुहरा छट गया । सातवी प्रतिमा के व्रत देकर प्यारेलाल के पुत्र हीरालाल को भी वतियों की जमात में मिला लिया गया। जल्दी ही पौष कृ० ४ सं० २०३६ को कटनी में उसके कठिन इम्तिहान की घड़ी भी आ गई और आदेश से क्षण भर में हीरालाल ने कैशलोंच कर देह से अपनी निर्ममत्वता सिद्ध कर दी। फिर सब कुछ बदल गया। गांव का हीरालाल सबका हीरा बन गया । आचार्य श्री ने उसे क्षुल्लक वीरसागर नाम से अभिहित करते हुए जनेश्वरी दीक्षा प्रदान की। गुरु की वैयावृत्ति करते हुए क्षुल्लक वीरसागर महाराज शास्त्रों के गहन अध्ययन में निमग्न हैं।
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क्षुल्लक श्री पूर्णसागरजी महाराज
___सत्रह वर्षीय नवयुवक अरविन्द को साधु संघ का दर्शन होते ही वैराग्य हो गया तो वस्ती के लोगों ने इसे जन्मांतरों का संस्कार ही माना। सुकोमल काया साधना पथ की कठिन यात्रा से कहीं कुम्हला तो नहीं जायगी बस यही तर्कणा उनके चर्चा की रह गयी थी । पथरिया (दमोह) की बस्ती में प्रजन भी जैन श्रावक के व्रत पालते हैं । वहां की गलियों में . खेलने वाला अरविन्द मुख पर विराग के भाव लेकर शाम को घर लौटता तो पिता कपूरचन्द जैन ने अच्छी तरह समझ लिया कि उनका कुल दीपक गृह त्यागकर जग दीपक बनकर रहेगा । सो गृहस्थी की चर्चा से उन्होंने स्वयं ही किनारा कर लिया। माता श्यामा के