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________________ दिगम्बर जैन साधु ४४२ ] तपो विशेषता-तप की भी आपमें बड़ी ही विशेषता है, श्रापने हमारे दि० जैनाचार्य प्रणीत बड़े बड़े कठिन व्रत जैसे - आचाम्ल वर्द्धन, मुक्तावली, कनकावली, जिनेन्द्र गुणसम्पति, सर्वतोभद्र, सिंहविक्रीडतादि अनेक तप आपने किये हैं तथा करते रहते हैं, जिनके महात्म्य द्वारा आपके दिव्य देह मनोहरता को प्राप्त हुई है तथा व्रतादि उग्र तप करते समय आपका शरीर बिल्कुल शिथिलता को प्राप्त नहीं होता था । वक्तृत्व शैली - भी आपकी कम नहीं है, आपका व्याख्यान हजारों की जनसंख्या में धारा प्रवाही होता है, जिसको श्रवरण कर अच्छे २ व्याख्याता चकित होते हैं। आपमें एक अपूर्व विशेषता यह है कि आप एक निर्भीक और स्पष्ट वक्ता हैं वस्तु के स्वरूप को आप जैसे का तैसा ही प्रतिपादन करते हैं जिस कारण पर मतावलम्बी तो श्रापके सामने ही थोड़े ही समय में परास्त हो जाते हैं । आपके वाक्य बड़े ही ललित, सुश्राव्य एवं मधुर निकलते हैं जिनके कारण जनता आपके वचनामृत श्रवरण करने के लिये सदैव उत्सुक और लालायित रहती है, इसलिये आपके उपदेश का प्रभाव जनता पर काफी प्रकाश और प्रभाव डालता है । चारित्र बल — इसके बताने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आप एक उच्च आदर्श लिङ्ग जो मुनि मार्ग उसके शरण को प्राप्त हुये हैं, ऐसी अवस्था में चारित्र आपका कैसा है ? उसे ज्ञानी जन स्वयं समझ गये होंगे, किन्तु आपके अपूर्व चरित्र के प्रभाव द्वारा आपकी चिरकीर्ति इस भूमंडल में विद्युतवत् चमत्कार दिखलाती हुई अलोकित कर रही है और इसी के प्रभाव से बड़े-बड़े राजा-महाराजा और बड़े-बड़े प्रतिष्ठित पुरुष आकर आपके चरणों में नत मस्तक करते हैं और बड़े-बड़े राज्याधिकारी गण आकर सिर झुकाते हैं यह सब चारित्र की विशेषता का महत्व है । • सहनशीलता या उपसर्ग विजयता - प्राप में अपूर्व है, महान कठिन से कठिन उपसर्गों की आप पर्वाह न करते हुये उन्हें बड़े ही शान्ति पूर्वक सहन करते हैं । एक समय आप बांदा से झांसी की ओर आ रहे थे वीच में अतर्रा नामक ग्राम में आपके सम्पूर्ण शरीर से भंवर मच्छी ( भोरमक्खी ) लिपट गई थीं, परन्तु आपने इस महान उपसर्ग की कुछ भी परवाह न की । दूसरी वार आप जब नरवर ( ग्वालियर ) से आमोल को जारहे थे उस समय शेर ने आकर आपका सामना किया था परन्तु वहां भी विजय प्राप्त की, इसी प्रकार झांसी के मार्ग में सामायिक करते समय गोहरा आपके बदन पर इधर-उधर फिरता रहा, परन्तु आपने कुछ भी परवाह न की और भी अनेक उपसर्ग आपने आने पर सहे हैं विस्तार भय से यहां उल्लेख नहीं किये ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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