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दिगम्बर जैन साधु
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तक अपने को इस अवस्था में पूर्ण परिपक्व कर जनवरी १६८० को विहार कर संघ से निकल गए ।
विहार करते हुए "बालावेहट " अतिशय क्षेत्र ललितपुर पहुँचे जहाँ प्राचार्य श्री विमलसागरजी महाराज का संघ विराजमान था । वे दर्शन की अभिलाषा से श्राचार्य श्री के पास पहुँचे । श्राचार्य श्री इन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि वे बेकार ही ऐलक अवस्था का विकल्प लिये क्यों जा रहे हैं ? इनके दिल में तो तीव्र वैराग्य की भावना थी एवं वे भी इसी क्षरण का इन्तजार कर रहे थे ।
३१ जनवरी ८० को माघ शुक्ल पूर्णमासी के दिन गुरुवार को श्राचार्य श्री ने इनके कठोर चारित्र व साधना को देखते हुए मुनि दीक्षा दी ।
मुनि दीक्षा के उपरांत गुरु की आज्ञा से धर्म प्रचार हेतु नव दीक्षित साथी मुनि श्री पुष्पदन्तजी के साथ धर्मं प्रभावना पैदा करते हुए मध्यप्रदेश के छिन्दवाड़ा शहर में पधारे एवं जहाँ इनका मुनि अवस्था में प्रथम वर्षा योग साधना बड़े ही प्रभावोत्पादक ढंग से हुई । वे अपने सौम्य स्वभाव, गम्भीरता एवं कड़ी तपस्या से जन-जन का हृदय जीत धर्म-प्रभावना पैदा कर रहे हैं ।
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मुनिश्री सुधर्मसागरजी महाराज
मुनि श्री सुधर्मसागरजी का जन्म तमिलनाडू प्रान्तर्गत तिरूपणपुर ग्राम में सन् १९३० ई० में हुवा था । आपके पिता का नाम श्री वज्रबाहु तथा माता का नाम रुक्मिणीदेवी था। माता-पिता अत्यन्त सात्त्विक प्रवृत्ति के थे । बाल्यकाल में श्रापका नाम पार्श्वनाथ रखा गया । जिन धर्म पर विशेष श्रद्धा होने के कारण आपके पिता ने मुनि दीक्षा धारण की, जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से आपके जीवन पर पड़ा और आपने धर्म साधन तथा संयम को ही अपने जीवन का आधार बना लिया । सन् १९६६ में सोलापुर में आपने ० विमलसागरजी से निर्ग्रन्थ जैनेन्द्री दीक्षा धारण की । श्राप एकान्तप्रिय और अधिकतर मौन में समय व्यतीत करते थे ।