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दिगम्बर जैन साधु
मुनिश्री भूतवलीजी महाराज
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श्री भूतबलजी महाराज का जन्म कर्नाटक राज्य के बेलगाम जिले के सहूदी ग्राम में ४ अप्रेल १६४४ में हुआ । उनका नाम भीमसेन
'जाड़कर रखा गया । वे चार बहनों के बीच अपने पिता के इकलौते लाड़ले पुत्र थे । साधारण शिक्षा प्राप्त करके खेती-बाड़ी करने में लग गए । प्रारम्भ में आपको देव-दर्शन करने जाने से भी चिड़ थी किन्तु एक बार इनके कुछ दोस्त इन्हें धोखे से १०८ श्री महाबल
महाराज के पास दर्शन हेतु ले गए। वहाँ पर इन्हें परम शांति प्राप्त हुई । अब आप नियम से महाराज श्री की वैयावृत्ति करने जाने लगे । एक दिन महाराज श्री ने भीमसेन को समझाया कि "प्रत्येक माता-पिता अपने पुत्रों को स्वार्थ से प्यार करते हैं । यदि विश्वास न हो तो आज ही घर जाकर परीक्षा कर सकते हो। तुम घर जाकर अपने माता-पिता का काम नहीं करना और न ही खेत पर काम करने जाना, उसके बदले घर में ही धर्म- ध्यान करना ।" भीमसेन ने महाराज श्री की आज्ञा के अनुरूप आचरण किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि इनकी घर में बहुत पिटाई की गई । बस यहीं से भीमसेन के जीवन में अद्भुत परिवर्तन आ गया। एक तरफ इनके माता-पिता घर में बहु लाने का स्वप्न देख रहे थे और भीमसेन ने अपने मन में कुछ और ही सोच रखा था । उन्होंने विवाह को टालने के उद्देश्य से महाराज श्री के पास दो वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। वे वैराग्य की ओर कदम बढ़ाने लगे ।
सन् १९७३ में वे, चारित्र के अनूठे संयोजक, माँ शारदा के अनुपम पुत्र, युवाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की दर्शनाभिलाषा से अजमेर पहुंचे । आचार्य श्री के व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित होकर इन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण किया। समय व्यतीत होता गया एवं वे श्राचार्य श्री के सानिध्य में शनैः शनैः अपनी वैराग्य भावना को पुष्ठ करते रहे ।
सन् १९७६ में पुनीत अष्टाह्निका पर्व पर आचार्य श्री ने इन्हें क्षुल्लक दीक्षा एवं उसी वर्ष ८ माह पश्चात् इनके कठोर नप, निष्ठा एवं वैराग्य साधना को देखकर ऐलक दीक्षा दी । ४ वर्षों