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दिगम्बर जैन साधु उठते थे । आपके हृदय में अंकुरित वैराग्य पल्लवित होने लगा । आप सोचने लगे ऐसा अवसर मुझे कब आयेगा जब मैं घर छोड़ वन को जाऊंगा-आत्म सुधार के मार्ग पर लगूगा । जब आचार्य देश भूषण महाराज का चातुर्मास १९६७ में स्तवनिधि में हुआ तो आप वहां पहुंचे और आचार्य देशभूषणजी महाराज से निवेदन करने लगे हे स्वामी मैं आत्म सुधार हेतु इस परम पवित्र प्रव्रज्या को धारण करना चाहता हूं-अनुग्रह करें। तभी आचार्य श्री ने कहा कुछ दिन घर में धार्मिक ग्रन्थों का अभ्यास-मनन करो। प्राचार्य श्री के उक्त आदेश को आप स्वीकार कर घर लौट आये और विशेष रूप से जैन धर्म की प्राथमिक पुस्तकों को पढ़ने लगे व तत्व बोधक शास्त्रों का अभ्यास करने लगे। तीनों टाइम सामायिक का भी आप अभ्यास करने लगे। चातुर्मास पूरा होने पर ये संघ में गये और प्राचार्य देशभूषण महाराज से संघ में रहने की प्रार्थना की पर आपको उत्तर मिला । अभी आप कुछ दिन घर में रहें, हम स्वतः आपको उचित समय पर संघ में बुला लेंगे। इस तरह संघ दर्शन, साधु सेवा का आपका क्रम चलता रहा।
सन् १९६८ में आचार्य महावीरकीर्ति महाराज का ससंघ चातुर्मास हुम्मच पद्मावती में हुआ था। चतुर्मास के बाद संघ हुबली बेलगांव स्तवनिधि क्षेत्र निपाणी होते हुये सौंदलगा गांव पहुंचा। तब आप स्वयं गाँव के नर नारियों के साथ संघ को लेने पधारे, गाजे बाजे एवं बड़ी प्रभावना के साथ संघ का अपने गांव कांगनौली में प्रवेश कराया। प्रतिदिन प्राचार्य जी का प्रवचन होता था। बड़ी धर्म प्रभावना हुई । यहां संघ २० दिन ठहरा, यहां पर आपने प्रतिदिन आचार्य श्री के उपदेश को सुना और परिणामों को सुधारा । यहाँ से संघ विहार कर कुम्भोज बाहुबलि आदि स्थानों पर विहार करता हुआ कुथलगिरि पहुंचा एवं महावीरकीर्तिजी महाराज ने इसी सिद्धक्षेत्र पर चातुर्मास किया।
यह वही कुन्थलगिरि सिद्धक्षेत्र है जहां पर कुलभूषण देशभूषण मुनिराज ने भयंकर उपसर्ग सहकर मुक्ति प्राप्त की थी। यह वही पावन क्षेत्र है जिस पर स्व० पू० आचार्य शांतिसागरजी महाराज ने जगत को चकित करने वाली ४० दिन की सल्लेखना धारण की थी। इसी सिद्धक्षेत्र पर पुनः आप श्री प्राचार्य महावीरकोतिजी महाराज के संघ में पहुंचे आचार्य श्री के दर्शन किये तथा श्री १०८ मुनि श्री सन्मतिसागरजी महाराज को अपना दृढ़ निश्चय प्रकट कर दिया कि मुझे अब निश्चित संसार का त्याग करना ही है पर फिर भी इस सुयोग में कुछ कमी थी । जब पुनः आचार्य महावीरकीर्तिजी महाराज ने सन् १९६९ में गजपंथा में चातुर्मास किया तब उनके समक्ष पहुंचे व दीक्षा लेने का दृढ़ निश्चय प्रकट किया । आचार्य श्री ने इसे स्वीकार कर लिया। तभी आपने घरवालों को इस महान निर्णय से सूचित कर दिया और दिनांक २०-१०-६६ को आपने आचार्य श्री महावीरकीतिजी महाराज