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________________ [ ३३ ] प्रकाशन व्यवस्था उतनी टेढ़ी खीर नहीं रह जाती जितनी उसके निर्माण में आने वाले प्रारम्भिक कार्य की। परिचय पत्रावलियों के आधार पर गद्यात्मक लेखन करने में हमें कठोर श्रम और अधिक समय व्यय करना पड़ा। एक साधु के परिचय को पत्रावलि के माधार पर पढ़ना-अंकित संकेतों को क्रमबद्ध लगाकर गद्यात्मक रूप में लिखना पुनः आवश्यक संशोधन, परिवर्धन करके तैयार करना। मेरा अनुमान है कि जितने श्रम, साधना और समय में यह मात्र परिचय ग्रंथ तैयार हुआ है उतने श्रम में २-४ ग्रंथों का सम्पादन बड़ी ही सुगमता से हो सकता था। दिगम्बर साधु महान आदर्श महापुरुष व उच्चकोटि के साधु हैं-जिन पर हम सबको महान गौरव है और ऐसे ही महासंतों से श्रमण सस्कृति सदैव गौरवान्वित होती रहेगी। हमने यथा शक्य प्रयत्न किया है कि इस ग्रंथ में सभी साधुओं के भाव चित्रों का दर्शन पाठकों को मिले परन्तु प्रयत्न करने पर भी कुछ साधुओं के चित्र हमें प्राप्त नहीं हो सके इसके लिये हमें खेद है। कृतज्ञता के सर्वोत्कृष्ट भाजक समाज रत्न ! ___ ग्रंथ के प्रकाशन का कार्य पूर्ण होने पर विचार आता है कि श्री श्यामलालजी ठेकेदार सा० की भावना कितनी उत्तम है जो ऐसे महानतम कार्य के सम्पादन कराने का कार्यभार अपने कन्धों पर लिया। आपने दीर्घकाल तक समाज सेवा की है और कर रहे हैं आप कोटि कोटि धन्यवाद के पात्र हैं । भगवान से प्रार्थना है कि आप दीर्घायु होकर समाज एवं धर्म की सेवा करें। साधु परिचय ग्रंथ का कार्य प्रगति से चल रहा था कि बीच में पुनः इस कार्य को अर्थाभाव के कारण रोकना पड़ा। इस ग्रन्थ का प्रकाशन होना ही था । अतः ब्र. मोतीचन्दजी शास्त्री हस्तिनापुर वालों ने ग्रंथ को पूर्ण रूप से सहयोग देने की स्वीकृति दी परन्तु कुछ दिनों बाद मुझे कई वार पत्राचार करने के पश्चात् उनकी असहमति ही जाहिर हुई तथा कार्य जो प्रगति पर था पूर्ववत पुनः रुक गया। यह कार्य लगभग ४ माह तक रुका रहा तत्पश्चात् शुभ संयोग से इस ग्रंथ के प्रकाशन हेतु श्रीमान् सेठ पूनमचन्दजी गंगवाल झरिया वालों से सम्पर्क किया। श्रीमान् सेठ पूनमचन्दजी गंगवाल सा० ने इस महानतम नंथ जो आर्थिक परिस्थितियों वश काफी समय से रुका हुआ था। उसे स्व द्रव्य से संपूर्ण कराने की स्वीकृति प्रदान की । ग्रंथ प्रकाशन की विषम परिस्थितियों में आपका आवांछनीय सहयोग पाकर मैं अत्यन्त हर्षित हुआ मेरी हार्दिक इच्छा थी कि इतने परिश्रम के द्वारा एकत्रित दि० जैन साधु परिचय ग्रन्थ का कार्य आर्थिक कारण वश अपूर्ण न रह जाय । इस आर्थिक
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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