________________
दिगम्बर जैन साधु
[ ३२१ बचपन में बदन से गठीले होने से लोग बंबू कहके बुलाते थे । आगे चलकर यही नाम संभू, संभाजी और संभवकुमार बन गया।
आप ७ साल की उम्र तक बीमार ही थे। सिर्फ ककड़ी खाने से बीमारी खतम हो गयी। नमक और मिरच खाना यह बचपन की खास आदत थी। .
१९४२ से स्कूल की पढ़ाई शुरू हो गयी । रुकड़ी के पाठशाला में चौथी तक पढाई हुई। स्कूल में आप सदा विनम्र होशियार रहे थे।
आगे की शिक्षा सातवीं कक्षा तक बाहुबली गुरुकुल में हुई। वहाँ शिक्षा के साथ जैन धर्म के असली संस्कार हो गये । वहीं पर अपने मन में ख्वाब बनाये और निश्चय किया कि मैं आगे चलकर धर्मसेवा हो करूंगा।
बाहुबली आश्रम के खर्च का बोझ ज्यादा होने के कारण आपके पिताजी ने आपको वापस रुकड़ी में महात्मा गांधी विद्या मंदिर से आठवीं कक्षा उत्तीर्ण कराई। जिसके बाद स्कूल छोड़ना पड़ा।
बाद में घर की छोटी सी दुकान और खेती का काम करने लगे । काम करते करते जव कभी फुरसत मिलती तो साइकिल लेकर बाहुबली या कहीं अन्य धार्मिक स्थान जहाँ जैन धर्म का पवित्र स्थान हो वहाँ जाया करते थे।
जिस तरह बचपन से ही आप सन्यस्त और धर्मशील रहना चाहते थे। ब्रह्मचारी रहकर संसारी जोवन छोड़ने की वचपन में ही आपने प्रतिज्ञा की थी।
सन् १९५३ से १९६० तक आपने जन कल्याण कार्य भी किया। छोटे बच्चों को नाट्य, गाना आदि सिखाते थे। गांव के बाहर १६५९ में एक घास-फूस की कुटी बनाकर बच्चों के पढ़ाई के लिये आश्रम भी खोला था। गांव में एक नाट्य संस्था भी खोली थी।
१६५६ में आपने किसान और शिक्षकों के साथ भारत दर्शन यात्रा भी की है।
महाराज के प्रवचन को सुनकर आपके मन में वैराग्य की भावना जागृत हो गई और महाराज के संघ में पहुंचकर ब्रह्मचर्य और क्षुल्लक दीक्षा ले ली।
शुक्रवार तारीख २४ मार्च १९६७ को प्राचार्य रत्न श्री १०८ देशभूषण महाराजजी के शुभ हस्ते और श्री श्रवण बेलगोल के महा गोम्मटेश्वर मंदिर के पवित्र स्थान पर सुबह ८॥ से ९॥ तक