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दिगम्बर जैन साधु
उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्दजी महाराज
आँखों में दिव्य ज्योति, अधरों पर बोध पूर्ण स्मृति- रेखा, छवि में वीतरागत्व की सौम्यता, दिगम्बर ऋषि जिनके प्रशस्त भाल पर चिन्तन और अनुभूति पक्ष का साधना-मूलक जीवन विसर्जन और तपोनिष्ठ व्यक्तित्व के धनी मुनिश्री विद्यानंदजी महाराज प्राज जैन जगत शिरोमणि संत हैं ।
मुनिश्री का जन्म दक्षिण भारत के उसी बेलगांव जिले में २५ अप्रेल १९२५ में हुआ था, जिसे आचार्य रत्न चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागरजी महाराज की कर्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है । आपकी माता श्रीमती सरस्वती देवी और पिता श्री कालचन्दजी उपाध्याय बेलगांव के शेडवाल नामक ग्राम के रहने वाले हैं । माता पिता के धार्मिक विचारों का प्रभाव ही बालक सुरेन्द्र ( मुनिश्री विद्यानंदजी
का बचपन का नाम ) के व्यक्तित्व और आचार विचार पर स्पष्ट परिलक्षित होता है । मुनिश्री विद्यानंद की शिक्षा श्री शान्तिसागर विद्यालय में हुई और ब्रह्मचर्य की दीक्षां दिसम्बर १९४५ में तपोनिधि श्री महावीरकीर्तिजी महाराज ने दी । मुनिश्री के मन में बाल्यावस्था से ही मुनि बनने की प्यास थी ।
की सबसे बड़ी विशेषता उनका बेलागपन और समन्वय की प्रवृत्ति है । आप प्राचीन धार्मिक विचारों के अनुशीलन के साथ साथ आधुनिक सभी अच्छाईयों के समर्थक हैं । समस्त धर्मों के मूल तत्वों का आदर करते हैं और जैनदर्शन एवं आगम के अनुकूल आत्मिक साधना के पथ पर चलते हैं । मानव की समानता के पोषक एवं "वसुधैव कुटुम्बकम्" में इनकी आस्था है ।
मुमिश्री जहाँ "स्वान्तः सुखाय " इन्द्रिय निग्रह और तपश्चरण द्वारा अपने श्रात्म-सृजन में न हैं वहां वे "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय " समीचीन धर्म का उपदेश भी करते हैं । सतत् लगन और स्वाध्याय द्वारा उन्होंने तत्वों का यथार्थ ज्ञान एवं वस्तु स्वरूप का मूर्त- अनुभव प्राप्त किया । अपने प्रवचन में जिन वचनामृतों का दान करते हैं उसे लेने हजारों की संख्या में धर्म श्रद्धालु आते हैं ।