SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिगम्बर जैन साधु [ २६७ भावना को पूर्ण साकार बनाने में मेरे सहपाठी श्री पं० महेन्द्रकुमारजी पाटनी आगे आए। समाचारपत्रों में जब यह समाचार पढ़ने को मिला कि श्री पाटनीजी सेवानिवृत्त हो क्षुल्लक दीक्षा लेने जा रहे हैं तो आत्मा हर्ष से गद्गद् हो गई । विचार आया कि ये जीवन के विकास में भी पीछे नहीं रहे तो जीवन समेटने के समय भी लक्ष्य को नहीं छोड़ा । पण्डितजी अपने भरे पूरे गृहस्थ जीवन का दायित्व अपने सुयोग्य पुत्रों को प्रसन्नता पूर्वक सौंपकर आत्मकल्याण की ओर बढ़ रहे हैं- इससे अधिक प्रेरणादायक बात और नहीं हो सकती है । पण्डितजी ने सन् १९१६ में अजमेर जिले के ऊँटड़ा ग्राम में खण्डेलवाल कुल के प्रतिष्ठित परिवार श्री फतेहलालजी पाटनी के यहाँ जन्म लिया । प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम में ही पाई अनन्तर अपने पितृव्य श्री मिश्रीलालजी पाटनी के कारण अजमेर में शिक्षा प्राप्ति के लिए आए तथा श्री महावीर दिगम्बर जैन विद्यालय में प्रविष्ट हुए। पण्डितजी सभी विषयों में परिश्रमशील और अत्यन्त सुशील छात्र रहे। यही कारण था कि विद्यालय के अध्यापक व प्रधानाध्यापक भी जब कभी किसी विवाद का फैसला करते थे तो इनकी राय को महत्त्व दिया करते थे । विद्यालय में समाज के मूर्धन्य विद्वान अध्यापक रहे थे । अनेक ग्रन्थों के टीकाकार पं० लालारामजी शास्त्री, पं० मुन्नीलालजी, पं० बनारसीदासजी शास्त्री, पं० जवाहरलालजी शास्त्री, पं० विद्याकुमारजी सेठी एवं पं० वर्धमान पार्श्वनाथजी शास्त्री रहे । पं० मोतीचन्दजी पाटनी, लाला हजारीलालजी जैन, पं० रामचन्द्रजी उपाध्याय आदि अन्य विषयों के अध्यापक थे। सभी अध्यापकों का जीवन आदर्श था। उनसे केवल पुस्तकीय ज्ञान की ही शिक्षा-दीक्षा नहीं मिली अपितु जीवन की रचनात्मक प्रेरणा भी मिलती रही । सन् १९३० में पण्डितजी ने विद्यालय छोड़ दिया इसके बाद पं० विद्याकुमारजी के पास स्वयंपाठी बनकर पढ़ते रहे । वाराणसी की मध्यमा, कलकत्ता की काव्यतीर्थ और सोलापुर से शास्त्री परीक्षा दी । पं० जीने दो विवाह किए - प्रथम पत्नी से आपके कोई सन्तान नहीं हुई । द्वितीय पत्नी से दो पुत्र हुए । दूसरी पत्नी का निधन हुए भी काफी समय हो गया है । तृतीय विवाह के लिए आपने कतई मना कर दिया ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy