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दिगम्बर जैन साधु
[ २६३ ब्र० श्री प्यारीबाई जन्मस्थान
पारौल ( ललितपुर उ० प्र०) पिता का नाम
परमानन्दजी जैन माता का नाम
नन्नीबाईजी घर की स्थिति
सम्पन्न परिवार । जन्म लेने के बाद उसका भावी जीवन कैसा होगा, कहा नहीं जा सकता । कौन कितनी आयु लेकर आया, इसे तो केवल, केवली ही जानते हैं । साधारण मनुष्य के ज्ञान का यह विषय नहीं । पारौल (ललितपुर उ० प्र०) में समृद्ध परिवार में श्री परमानन्दजी के घर जन्मी प्यारीबाई ने धीरे धीरे कुछ वसन्त पार कर लिये । माता-पिता को चिन्ता ने प्रा घेरा । बच्ची के हाथ पीले करने हैं। चिन्ता ने सोना, खाना सब खराव कर दिया । शुभ योग से अपने प्रयत्न के फलस्वरूप श्री परमानन्दजी ने मड़ावरा निवासी श्री रामचन्द्र को अपनी पुत्री के लिये वर रूप में चुन लिया। घर सम्पन्न था। वर वनने वाला लड़का घर में ज्येष्ठ पुत्र था। उसके अन्य दो भाई परमलाल और प्रेमचन्द्र थे। शुभ मुहूर्त में पिता ने श्री रामचन्द्र के साथ अपनी लाड़ली वच्ची का पाणिग्रहण कर दिया। पिता अपने कर्तव्य की पूर्णता पर खुश थे किन्तु दुर्देव कहीं बैठा मन ही मन हंस रहा था। एक वर्ष के भीतर ही हँसती, मुस्कराती बालिका का मुंह, जैसे स्याह हो गया। उसके सारे स्वप्न स्वप्न की तरह ही विलीन हो गये । अव उसकी आंखों को केवल आंसुओं का ही सहारा रह गया।
उसने साहस बटोरा और अपना ध्यान अध्ययन में लगाने का निश्चय किया। इससे अच्छा शोक निरोध का दूसरा उपाय नहीं था। मड़ावरा से इन्दौर की ओर देखा और उसे कंचनबाई दिगम्बर जैन आश्रम में अध्ययन की सुविधा प्राप्त हो गई। आठवीं कक्षा तक मन लगाकर अध्ययन किया और शुभोदय से उसे अपने पैरों पर खड़े होने की सामर्थ्य प्राप्त हो गई।
उज्जैन की जैन पाठशाला में ९ वर्ष तक अध्यापन कार्य किया । बालक वालिकाओं में उसका समय बीतने लगा । समय ने पल्टा खाया सौभाग्य से श्री धर्मसागरजी महाराज का समागम मिला। सिद्धवर कूट में आचार्य श्री विमलसागरजी से दो प्रतिमा के नियम ग्रहण किये । भावों में विशुद्धि आने लगी । उत्तरोत्तर धार्मिक भावना प्रगाढ़ होती गई और आचार्य श्री धर्मसागरजी से सातवीं प्रतिमा के व्रत ले लिये । कदम एक बार आगे बढ़े तो बढ़ते ही गये । श्री १०८ मुनि पुष्पदन्तसागरजी का सान्निध्य मिला और उनसे ८ वी प्रतिमा के व्रत शिरोधार्य किये । वर्तमान में उनके संघ के साथ ही धर्म साधन करती हुई विचरण कर रही हैं । स्वभाव से सरल एवं मधुर हैं।