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दिगम्बर जैन साधु मुनि श्री रविसागरजी महाराज
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खाते-पीते घर के हजारीलाल जैन को क्या सूझी कि छोटेपन में साधुओं की जमात में शामिल होने को छटपटा उठे । व्यवहारी जैसी छोटी सी बस्तियों में साधुओं का आना-जाना कभी हा हो यह बात तो गांव के अतिवृद्ध को भी ठीक से याद नहीं, सो हजारीलालजी साधुसेवा की अपनी उमगें दूरदराज के शहरों में विराजमान साधुओं की सेवा करके ही पूरी कर पाते थे। साधुसेवा और स्वाध्याय की मेहनत कुछ ऐसा रंग लायी कि वैराग्य की निर्भरणी वहने लगी । श्रावक लक्ष्मीचन्द जैन व चतुरी बाई की यह प्यारी संतान मंगसिर कृ० १३ सन् १९७६ जबलपुर में विराजमान आ० श्री सन्मतिसागरजी म० के चरणों में क्षुल्लक दीक्षा की याचना करने उपस्थित हुई । श्रावकवर्ग के समक्ष दीक्षा विधि पूरी हुई और क्षु० रविसागरजी महाराज की जय हो के नारों से आपके इस अनुकरणीय मार्ग की सराहना की । आचार्य श्री धर्मसागरजी से सावला (राजस्थान) में मुनि दीक्षा ली। सम्प्रति गुरुचरणों में वयावृत्ति करते हुए शास्त्रों का स्वाध्याय कर रहे हैं ।