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दिगम्बर जैन साधु मुनिश्री चारित्रसागरजी महाराज
मुनिश्री का जन्म सं० १९६२ में देवपुरा (राजस्थान) में हुआ था। उनके पिता का नाम किशनलालजी और माताजी का नाम श्रीमती चम्पावाई था। आपका जन्म नाम पन्नालालजी था।
आपकी शिक्षा कम हुई । छोटी आयु में विवाह हो गया था। परन्तु आप घर रहकर ही यथाशक्ति धर्म चिन्तन किया करते थे। १९२६ में श्री आ० शान्तिसागरजी
महाराज संव सहित उदयपुर पधारे । उनसे दिगम्बर धर्म में - चलने की प्रेरणा मिलो। फलस्वरूप क्रमश: व्रत धारण
करते हुए प्रात्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होते गये।
अजमेर में आचार्यवर धर्मसागरजी से उन्होंने २०२३ में मुनि दीक्षा ले ली।
जिसप्रकार चिन्तामणि रत्न तथा कल्पवृक्ष आदि अचेतन हैं, तो भी पुण्यवान पुरुषों को उनके पुण्योदय के अनुसार अनेक प्रकार के इच्छानुसार फल देते हैं। उसीप्रकार भगवान अरहन्त देव यद्यपि रागद्वेष रहित हैं, तथापि उनकी भक्ति से भक्त पुरुषों को भक्ति के अनुसार फल की प्राप्ति हो जाती है । सम्यक् भक्तिज्ञान और चारित्ररूपी रत्नत्रय ही मोक्ष मार्ग का साधन है और उसकी सिद्धि का साधन यह मुनिधर्म ही है । उदयपुर राजस्थान में आपने शरीर को छोड़ा तथा प्रात्म कल्याण में लगे रहे।
विशेष :-आप वाल ब्रह्मचारी हैं तथा आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज की पूर्व पर्यायी बहिन के
सुपुत्र हैं। आचार्य महाराज जव गृहस्थ अवस्था में हीरालाल के नाम से जाने जाते थे, तव २ वर्ष की अवस्था से ही इनका पालन पोपण किया और उन्हीं की प्रेरणा से आपने सन् १९६४ में लगभग १ लाख रुपये की जमीन तथा मकान आदि पैठण क्षेत्र को दान कर दिया।