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दिगम्बर जैन साधु
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मुनिश्री वर्धमानसागरजी महाराज
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महाराज श्री का जन्म सनावद ( मध्यप्रदेश) में हुआ था। उनके पिता का नाम कमलचन्द्रजी था। उनकी शिक्षा बी० ए० प्रथम वर्ष तक है । वह संसार के क्षणिक सुखों की ओर से विरुद्ध हो गये और महावीरजी में २०२५ में फाल्गुन सुदी अष्टमी को आचार्य श्री धर्मसागरजी से मुनि दीक्षा ले लो । आप बाल ब्रह्मचारी हैं । अनेक उपसर्ग आने पर भी वह पूर्णरूप से विजयी हुए। अब वह निरन्तर अध्ययन में लगे रहते हैं । अशुभकर्म के उदय से इनकी
श्रांखों को ज्योति चली गई थी। आपने खानियां जयपुर में चन्द्रप्रभु भगवान के सामने शांतिभक्ति नामक स्तोत्र का पाठ किया, फलस्वरूप आंखों की ज्योति फिर से आ गई । यह भगवान की भक्ति का प्रभाव है। क्रोधित हुए सर्प के काट लेने से जो असह्य विष समस्त शरीर में फैल जाता है, वह गारुणी की मुद्रा के दिखाने व उसके पाठ करने से, विष को नाश करने वाली औषधियों को देने से, मंत्र से और होम करने आदि से बहुत शीघ्र शांत हो जाता है । उसीप्रकार हे भगवान्, जो मनुष्य आपके दोनों चरणरूपी अरुण कमलों का स्तोत्र करते हैं, दोनों चरण कमलों की स्तुति करते हैं, उनके समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं और शरीर के समस्त रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । हे भगवन् ! यह भी एक महान आश्चर्य की बात है । अन्य विघ्नों को दूर करने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है, परन्तु रोग और विघ्न आदि केवल आपकी स्तुति करने मात्र से दूर हो जाते हैं । यही कारण है, जब युवक मुनिराज भगवान जिनेन्द्र की स्तुति करने क कारण दृष्टि चले जाने पर भी आंखों की पुनः दिव्यज्योति को प्राप्त हुए। आपकी प्रवचन शैली बहुत ही आकर्षक है । आप सदैव लेखन एवं पठन कार्य में लीन रहते हैं ।