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दिगम्बर जैन साधु
[ २१५ आप अपने पिता को व्यापार आदि में सहयोग देने लगे । आपकी आर्थिक स्थिति विशेष सम्पन्न नहीं रही इसीलिए आजीविका की जिम्मेवारी आपके ऊपर थी।
बाईस वर्ष की अवस्था में बांसादेई के श्रीमान् नन्हेंलालजी के घर श्रीमती कौंसाबाई के साथ आपका विवाह हुया । पांच वर्ष बाद आप वीरपुरा से व्यापार के उद्देश्य से सागर चले आए और वहीं रहने लगे । पापको तीन पुत्र और चार पुत्रियों का संयोग मिला।
आपके अन्तर में वैराग्य की निर्मल ज्योति का अंकुरण हुआ फलतः रेशंदीगिरिजी की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के समय परम पूज्य मुनिराज आदिसागरजी महाराज से दूसरी प्रतिमा के व्रत अङ्गीकार कर लिये । चार माह बाद ही आहारजी अतिशय क्षेत्र में मुनि श्री धर्मसागरजी महाराज से तीसरी प्रतिमा के व्रत ले लिए । अन्तर में वैराग्य की निर्मल धारा वही फलतः सावन सुदी अष्टमी सम्वत् २०२० के दिन सागर में मुनि श्री से ही सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिये। शीघ्र ही वह भी समय आया जव अन्तर में सच्ची वैराग्यता झिलमिलाने लगी और कार्तिक शुक्ला एकादशी सं० २०२१ के दिन अतिशय क्षेत्र पपौराजी में परम पूज्य दि० जैनाचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से आपने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर ली । श्री धर्मसागरजी से मुनिदीक्षा महावीरजी में ली । टौंक में समाधिमरण किया।
संसार की इस क्षरण-भंगुर नश्वरता एवं प्रसारता से भयभीत होकर जिस पुरुषार्थ से आपने इस पथ का अवलम्बन किया, वह आपकी सच्ची वैराग्य भावना का प्रतीक है ।
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