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________________ दिगम्बर जैन साधु [ १६३ बुद्धि और प्रादर्श कार्य कुशलता का परिचय देते हुये अध्ययन के वाद, उसी आश्रम में आपने अध्यापन का कार्य सम्हाला । इस कार्य में आपको जितनी भी सफलता मिली वह आपकी यशः कीर्ति के लिए पर्याप्त है। इस प्रकार अध्ययन और अध्यापन का लगभग १६ वर्षीय लम्बा समय आश्रम में व्यतीत हुआ। आपने आश्रम में एक अवोध असहाय बालिका के रूप में प्रवेश लिया और एक सुयोग्य विदुषी महिला के रूप में अधिष्ठात्री वनकर आश्रम से विदा ली। "जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन्न, जैसा पीये पानी वैसी बोले वानी" इस लोकोक्ति को शब्दश: चरितार्थ करती हुई आपके अन्तर में संसार की असारता के साथ आत्मोन्नति की भावना का उदय हुआ और परम पूज्य श्री समन्तभद्रजी महाराज से ७ वी प्रतिमा के व्रत अंगीकार कर लिये। यह मुनि श्री अत्यन्त सुयोग्य महातपस्वी बाल ब्रह्मचारी और आचार्यवर हैं । यही आपकी आत्मा को सत्पथ पर लाने वाले मूल मार्ग दर्शक व आदि गुरु हैं । ____समय अपनी अवाधगति से निकलता गया तदनुसार आपके भावों में निर्मलता आई, परिणामों में वैराग्य ने प्रवेश किया और सद्गुरु आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के सद्उपदेशों ने प्रभावित किया, फलतः चैत्र वदी पड़वा विक्रम सम्वत् २०१२ में गिरनारजी सिद्ध क्षेत्र पर प्राचार्य श्री से क्षल्लिका की दीक्षा ग्रहण करली। प्राचार्य श्री ने आपका दीक्षित नाम राजमतीजी रखा। अपनी कठिन साधना के साथ ज्ञानाभ्यास के द्वारा ज्ञान और चारित्र में उत्तरोत्तर वृद्धि की, फलतः आपके अन्तर में शुद्ध वैराग्य की ज्योति जगमगा उठी । आपने लोक में स्थित जीवों की रक्षा के लिये पीछी, शुद्धि के लिए कमन्डलु तथा शारीरिक लज्जा की मर्यादा बनाए रखने के लिए मात्र एक धोती को छोड़कर समस्त अन्तरंग बहिरंग परिग्रह का त्याग करने का निश्चय किया, और कार्तिक शुक्ला चतुर्थी सम्बत् २०१८ के दिन सीकर में परम पूज्य दिगम्बर जैनाचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से आर्यिका की दीक्षा ग्रहण की। श्राप अनेक भव्य जीवों को सतपथ का अवलोकन कराती हुई प्रात्म कल्याण की ओर अग्रसर हैं । ऐसी भव्य प्रात्मा के श्री चरणों में नमन है । Boduce DOGGGG
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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