________________
१९२]
दिगम्बर जैन साधु क्षल्लिका की दीक्षा के बाद आपके अन्तर में वैराग्य की लौ दिन प्रतिदिन उग्न रूप धारण करती गई और चैत्र बदी पड़वा विक्रम सम्वत् २०१४ में गिरनारजी सिद्धक्षेत्र पर परम पूज्य तपोनिधि आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से आपने आर्यिका की दीक्षा ग्रहण कर ली।
आपनी उम्र तपस्या के द्वारा आत्मा को कर्म-मल से रहित करती हुई आप मुक्ति मार्ग के पथ पर अविचल रूप से बढ़ रही हैं ।
आर्यिका राजुलमतीजी
विक्रम सम्वत् १९६४ में अकोला क्षेत्र के कारजा नामक ग्राम में वघेलवाल गोत्रोत्पन्न पिता श्री वबनसाजी के घर माता श्री बजावाईजी की कुक्षि से आपका जन्म हुआ था। आपको दो भाइयों तथा दो बहिनों का संयोग भी मिला । भाइयों में श्री मोतीलालजी व श्री झब्बूलालजो हैं । तथा बहिनों में ज्येष्ठ आप एवं छोटी वहिन श्री मौनाबाईजी हैं ।
माता पिता ने आपका जन्म नाम श्री रूपाबाईजी रखा था। आपके पिताश्री अच्छी स्थिति के सम्पन्नशाली व्यक्ति थे तथा सराफा की दुकान करते थे। यह उदार हृदयी, सन्तोषी और शान्त प्रवृत्ति के योग्य व्यक्तियों में से एक थे । यही कारण था कि इनके सुलक्षणों का पूरा पूरा प्रभाव होनहार सन्तान पर भी पड़ा।
जब आपकी उम्र मात्र १२ वर्ष की थी तब आपके पिता श्री ने आपका पाणिग्रहण कारजा ग्राम में ही श्रीमान् सेठ नागोसाजी के पुत्र श्री देवमनसाजी के साथ किया । भाग्य की बात थी कि उसी ग्राम में माता पिता और उसी ग्राम में सास स्वसुर, दोनों ही कुल श्रेष्ठ सम्पन्न तथा ऐश्वर्यशाली थे। आपकी सास श्री सोनाबाईजो भी एक आदर्श महिला थीं।
विवाह हुये डेढ़ वर्ष ही व्यतीत हुआ था कि दुर्दैव का चक्र चला और आपके पतिश्री का स्वर्गवास हो गया । उस समय आप १४ वर्ष की अबोध बालिका ही थीं। इस दुःखदायी वज्र प्रहार के हो जाने से आपको अध्ययन के उद्देश्य से सोलापुर आश्रम का सहारा लेना पड़ा। अपनी कुशाग्न