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दिगम्बर जैन साधु
आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी
आज दिगम्बर जैन समाज में जहां अनेक तपस्वी विद्वान आचार्य मुनिगरण विद्यमान हैं वहीं अपने तप और वैदुष्य से विद्वत्संसार को चकित करने वाली श्रार्थिका साध्वियां भी विद्यमान हैं। इन्हीं में से एक हैं आर्यिका १०५ श्री सुपार्श्वमती माताजी । आपकी बहुज्ञता, विद्याव्यासंग, सूक्ष्म तलस्पर्शिनी बुद्धि, श्रकाव्यतर्करणा शक्ति एवं हृदयग्राह्य प्रतिपादन शैली अद्भुत है और विद्वत् संसार को भी विमुग्ध करने वाली है ।
राजस्थान के मरुस्थल नागौर जिले के अन्तर्गत डेह से उत्तर की ओर १६ मील पर मैनसर नाम के गांव में सद्गृहस्थ श्री हरकचन्दजी चूड़ीवाल के घर वि० सं० १६८५ मिती फाल्गुन शुक्ला नवमी के शुभ दिवस में एक कन्यारत्न का जन्म हुआ - नाम रखा गया "भंवरी" । भरे पूरे घर में भाई बहिनों के साथ बालिका भी लालित-पालित हुई पर तब शायद ही कोई जानता होगा कि यह बालिका भविष्य में परमविदूषी नायिका के रूप में प्रकट होगी ।
अपने घरों में कन्या के विवाह की बड़ी चिन्ता रहती है और यही भावना रहती है कि उसके रजस्वला होने से पूर्व ही उसका विवाह संबंध कर दिया जाय । भंवरीबाई भी इसका अपवाद कैसे रह सकती थी । उनका विवाह १२ वर्ष की अवस्था में ही नागौर निवासी श्री छोगमलजी बड़जात्या के ज्येष्ठ पुत्र श्री इन्दरचन्दजी के साथ कर दिया । परन्तु मनचाहा कब होता "अपने मन कुछ और है विधना के कुछ और " विवाह के तीन माह बाद ही कन्या जीवन के लिये अभिशाप स्वरूप वैधव्य आपको आ घेरा । पति श्री इन्दरचन्दजी का आकस्मिक निधन हो गया । आपको वैवाहिक सुख न मिला विवाह तो हुआ परन्तु कहने मात्र को । वस्तुतः श्राप बाल ब्रह्मचारिणी ही हैं ।
अब तो भंवरीबाई के सामने समस्याओं से घिरा सुदीर्घ जीवन था । इष्ट वियोग से उत्पन्न असहाय स्थिति बड़ी दारुण थी। किसके सहारे जीवन यात्रा व्यतीत होगी ? किस प्रकार निश्चित जीवन मिल सकेगा ? अवशिष्ट दीर्घजीवन का निर्वाह किस विधि होगा ? इत्यादि नाना भांति की विकल्प लहरियां मानस को मथने लगीं । भविष्य प्रकाशविहीन प्रतीत होने लगा ।