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दिगम्बर जैन साधु प्रायिका पार्श्वमतीजी ।
आसोज वदी तृतीया विक्रम सम्वत् १९५६ के दिन जयपुर के खेड़ा ग्राम में बोरा गोत्रमें आपका जन्म हुआ था । जन्मके समय माता-पिताने आपका नाम गेंदाबाई रखा।
आपके पिताका नाम मोतीलालजी एवं माताका नाम जड़ाववाईजी था। आप अपने तीन भाइयों के बीच अकेली लाड़ली बहिन थीं । समयका दुखदायो चक्र चला और आपके दो भाई असमय में ही इस नश्वर संसारसे विदा हो गए । संसारकी इस असारता को देखकर आपके छोटे भाई ब्रह्मचारी मूलचन्द्रजीने धर्मका आश्रय लिया जो आजकल आत्म-कल्याणकी ओर तत्पर हैं।
जीविकोपार्जनके उद्देश्यसे आपके पिता श्री सपरिवार खेड़ा ग्रामसे जयपुर चले आये थे और मोदीखानेका व्यवसाय करने लगे थे। उस समय आपकी उम्र मात्र पांच वर्षकी थी।
जव आपकी अवस्था आठ वर्षकी हुई तब आपके पिता श्रीने आपका पाणिग्रहण जयपुर निवासी श्रीमान् लक्ष्मीचन्द्रजी कालाके साथ सम्पन्न कर दिया। आपके स्वसुर श्री सेठ दिलसुखजी अच्छे सम्पन्न प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। सात ग्रामकी जमींदारी आपके हाथ थी। स्वसुर घरके सभी व्यक्ति योग्य और सुशिक्षित थे, फलत: आपकी विशेष धार्मिक शिक्षा भी स्वसुर घर पर ही हुई। इसके पूर्व आपकी स्कूली शिक्षा मात्र कक्षा तीन तक ही थी।
आपके पति श्री लक्ष्मीचन्द्रजी काला एक होनहार और कर्तव्यशील व्यक्ति थे तथा अध्यापनका कार्य करते थे। अध्यापन कार्यके साथ ही अध्ययनमें भी आपने उत्तरोत्तर वृद्धि की किन्तु बी० ए० पास करनेके दो माह बाद ही दुर्दैव वश इनका अचानक असमयमें स्वर्गवास हो गया।
कर्मकी इस दुखदायी गतिके कारण यौवनावस्थामें ही आपको वैधव्य धारण करना पड़ा। उस समय आपकी उम्र २४ वर्षकी थी। आपको अपने गार्हस्थ जीवनकी अल्प अवधिमें सन्तानका सुख प्राप्त न हो सका । संसार की इस दुखदायी असारताने आपके अन्तरमें वैराग्यकी प्रबल ज्योतिको जला दिया । आप उदासीन वृत्तिसे घरमें रहकर नियम व्रतोंका कठोरतासे पालन करने लगीं।
आपकी आत्माका कल्याण होना था अतः वैधव्य प्राप्त करनेके ८-६ वर्ष बाद विक्रम सम्वत् १९६० में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराजसे जयपुर खानियां में ७ वी प्रतिमाके व्रत अङ्गीकार कर लिए। आपके परिणामोंमें निर्मलता आई और अन्तरमें वैराग्य का उदय हुआ,