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________________ दिगम्बर जैन साधु १३८ ] धन्य है उस मां को जो मानवोंके कल्याण - कर्त्ता ऐसे इकलौते पुत्रको जन्म देकर महा भाग्यशालिनी हुई । इस क्षणिक जीवन में आपने जबसे इस पथका अवलम्बन लिया तबसे अतुल जैनागमका ज्ञान ग्रहण करते हुये चारित्र के क्षेत्रमें भी अनवरत अग्रणी हैं । आपके दैनिक जीवनका अधिक उपयोग शास्त्र-स्वाध्यायमें ही होता है । आपका स्वाध्याय स्थायी और शुभोपयोगी होता है । आप अपने उपदेशमें जिन बातोंका निरूपण करते हैं वह विद्वानों को भी प्राश्चर्यकारी होती हैं । श्री श्रुतसागरजी के दिव्य व्यक्तित्वमें एक अनोखी प्रभावोत्पादक शक्ति है जिसका अनुभव उनके सम्पर्क में आने पर ही हो पाता है । जैन आगमके दुरूह और गूढ़तम रहस्यों तक उनकी जिज्ञासु दृष्टि पहुंचती है और वे तत्त्व विवेचनमें आठों याम एक परिश्रमी विद्यार्थीकी तरह रुचि लेते हैं एवं कठोर अध्यवसाय करते हैं । समाजमें आजकल अनेकान्तवाद तथा स्याद्वादकी उपेक्षा करके किसी भी एकान्त दृष्टिसे पक्ष समर्थन किये जाने के कारण जो अनर्थकारी ऊहापोह मच रही है उसके प्रति भी आपकी दृष्टि अत्यन्त स्पष्ट और आगम सम्मत है । आपका कहना है कि हमारे पूज्य आचार्योंने तत्त्वज्ञानकी कठोर साधनाके उपरान्त जो विवेचन किया है वह यदि हमारी दृष्टि में ठीक नहीं बंठता तो यह हमारे ज्ञान तथा क्षयोपशमकी कमी है अथवा हमने बातको उस अपेक्षा से समझनेका प्रयास नहीं किया है। ऐसी स्थिति में हमें अपनी बुद्धिको आचार्योंके कथन और अपेक्षाके अनुसार विकसित करने का प्रयास करना चाहिये । आचार्योकी वाणीको अपनी बुद्धिके अनुरूप तोड़-मरोड़ करना या एकान्त दृष्टिके पोषण के लिये अर्थका अनर्थ करना उचित नहीं है, और यह हमारा अधिकार भी नहीं है । वर्तमान में आप आचार्यश्री धर्मसागरजीके संघ के साथ रह रहे हैं आपके द्वारा आचार्यश्री धर्मसागर अभिवन्दनग्रन्थ का विमोचन २ मार्च १६८२ को भीण्डर में २५ हजार की जनसंख्या में विमोचित किया गया था। उसी अवसर पर एक गोष्ठी का आयोजन भी किया गया। जो दिगम्बर जैनाचार्य एवं प्राचार्य परम्परा के नाम से हुई थी । वर्तमान में आप यदा कदा लेख श्रादि लिखकर समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं । आपमें वात्सल्य भाव भी कूट-कूटकर भरा है । आचार्यश्री के प्रति विनय और संघके अन्य साधु-साध्वियों के प्रति आपका व्यवहार उस वात्सल्य और कल्याण - भावनासे श्रोत-प्रोत रहता है । उनके लिए आपका कथन है कि हम सब छद्मस्थ हैं अतः त्रुटियां हमसे हो सकती हैं, इसलिए निंदक की बात सुनकर भी हमें रोष नहीं करना चाहिये वरन् आत्म-शोधन करके अपने आपको त्रुटि हीन बनाना चाहिये । " जो हमारा है सो खरा है" ऐसा कहना ठीक नहीं होगा । हमें तो हमेशा सत्यको स्वीकार करनेके लिए तैयार रहना चाहिए और कहना चाहिये कि - " जो खरा है सो हमारा है ।" ऐसी परम पवित्र आत्माके प्रति कोटिशः नमन हैं । ¤
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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