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________________ दिगम्बर जैन साधु [. १२३ करेगा । अतः यहां ऐसा कोई भी कार्यक्रम मैं नहीं होने दूंगा जो दिगम्बर संस्कृति के प्रतिकूल हो और उसका सारा गलत प्रभाव देशभर में पड़े। इसके वावजूद भी आप लोग क्षुब्ध होते हैं और कार्य समिति से स्तीफा देते हैं तो दें मैं तो संस्कृति के अनुकूल कार्यों में ही अपनी सहमति दे सकता हूं । इस प्रकार अत्यन्त निर्भयता पूर्वक आपने दिगम्बर संस्कृति की रक्षार्थ कार्य किया और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखा । आपकी इस कार्य प्रणाली को देखकर आपके दिल्ली पहुंचने से पूर्व जो लोग श्रापको दिल्ली नहीं जाने देना चाहते थे उन्होंने भी एक स्वर से यह स्वीकार किया कि आपके रहते हुए परम्परा एवं श्रागम की महती प्रभावना हुई एवं संस्कृति अक्षुण्ण वनी रही । इस वर्ष भी आपके कर कमलों से दिल्ली महानगरी में दीक्षाएं सम्पन्न हुई। दिगम्बर सम्प्रदाय की ओर से प्राचार्य श्री देशभूषण जी महाराज भी अपने संघ सहित इस महोत्सव में सम्मिलित हुये थे । उभय प्राचार्यो का वात्सल्य देखकर सारा समाज आनन्द विभोर हो जाता था महोत्सव में मुनि श्री विद्यानंदजी महाराज भी उपस्थित थे और श्रापने भी उभय प्राचार्यों की भावनाओं के अनुकूल दिगम्बर संस्कृति की अक्षुण्णता के लिए दोनों श्राचार्यों से सदैव परामर्श करके ही प्रत्येक कार्यक्रम में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया था । दिल्ली महानगर से ससंघ मंगल विहार करके आपने उत्तरप्रदेश की ओर प्रस्थान किया एवं गाजियाबाद मेरठ, सरधना आदि स्थानों पर धर्म प्रभावना करते हुए उत्तरप्रदेश के ऐतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर के दर्शन करने के लिए पदार्पण किया । हस्तिनापुर भगवान शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ की गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक भूमि है । यहीं भगवान ऋषभदेव को सर्वप्रथम आहारदान राजा श्रेयांस ने दिया था कौरव पांडव की राज्य भूमि होने का गौरव भी इसी तीर्थक्षेत्र को प्राप्त है । यहीं पर महामुनि विष्णुकुमारजी द्वारा अकम्पनाचार्यादि ७०० मुनिराजों का उपसर्ग दूर हुआ था और रक्षावन्धन पर्व का प्रारंभ हुआ था और अब प्रायिका ज्ञानमतीजी की दूरदर्शी सूझबूझ से श्रागम में वर्णित विशाल जम्बूद्वीप की रचना त्रिलोक शोधसंस्थान के माध्यम से हो रही है तथा इस संस्थान के अन्तर्गत अन्य भी कई लोकोपकारी गतिविधियां सम्पन्न हो रही हैं । क्षेत्र कमेटी की ओर से संघस्थ मुनिराज श्री वि० सं० २०३१ में जब श्राचार्य श्री यहां पधारे थे तभी यहीं प्राचीन पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का आयोजन था । यहीं पर आपके चरण सान्निध्य में वृषभसागरजी ने यह सल्लेखना ग्रहण की थी और संघ सान्निध्य में अत्यन्त शांत परिणामों एवं पूर्ण चेतनावस्था में कषाय निग्रह करते हुए इस नश्वर शरीर का परित्याग कर उत्तर भारतीय समाज के समक्ष एक श्रादर्श उपस्थित किया था ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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