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दिगम्बर जैन साधु के आप पुत्र थे । आप से पूर्व जन्म लेने वाली संतानों का सुख . माता-पिता नहीं देख सके । आपका अपर नाम कजोड़ीमलजी भी था । प्रायः आपके दोनों ही नाम प्रसिद्ध रहे हैं । आपकी बड़ी बहिन ( बड़े पिता की संतान ) दाखां बाई का विवाह निकटस्थ ग्राम बामणवास में ही हुआ था। शैशवावस्था की दहलीज पर आपने पैर रखा ही था कि आपके माता पिता का असामयिक निधन हो गया । उधर दाखां बाई को भी माता पिता का वियोगजन्य दुःख पा पड़ा, किन्तु आपकी अपेक्षा उनकी आयु अधिक थी और विवाहित थी अतः उनको पति तथा सास-ससुर के संरक्षण में रहने का अवसर होने से अधिक चिन्ता नहीं थी । आपका जीवन तो अल्प समय में ही माता पिता के लाड प्यार भरे संरक्षण से वंचित हो गया था । इष्ट वियोगज दु:ख में आपको बहिन दाखांवाई का संरक्षण मिला । आप बामणवास जाकर उन्हीं के पास रहने लगे और जब विद्याध्ययन के योग्य हुए तो आप अपने पिता श्री के पूर्वजों की जन्मस्थली "दुगारी" ग्राम चले गये। वहां आपको मोतीलालजी सुवालालजी छांवड़ा का संरक्षण प्राप्त हुआ । इधर दाखांवाई को अल्पवय में ही एक और इष्टं वियोगज दुःख का झटका लगा जब उनके पति श्री भंवरलालजी का स्वर्गवास हो गया। अब तो मात्र दोनों भाई बहिन के निर्मल स्नेह का हो जीवन में आश्रय शेष था जो कि वहिन के जीवन पर्यंत रहा. शिक्षा
क्रमशः एक के बाद एक वियोगज दुःख आने से प्रारम्भिक जीवन में भी आप विशेष विद्याध्ययन नहीं कर सके । यद्यपि आपको अपने जीवन में सामान्य शिक्षा ग्रहण कर ही संतोप प्राप्त करना पड़ा तथापि शिक्षा के प्रति आपका अनुराग अद्यप्रभृति बना हुआ है। : . .. .
बचपन में अनभिज्ञता वश आप प्रायः सभी धर्मों के देवताओं के पास जाते थे। आप शिवालय भी गए, मस्जिद भी गये । आप सभी देवताओं के पास जाकर एक मात्र यही याचना करते थे कि "मुझे बुद्धि दे दो, विद्या दे दो" । उस समय आपको धर्मशास्त्रों का भी विशेष ज्ञान नहीं था और 'न गांव में कोई सही मार्ग बताने वाला था। एक दिन आप जैन मन्दिर में गये, वहां एक शास्त्रों के जानकार व्यक्ति शास्त्र वाचन कर रहे थे, उन्होंने कहा कि जो वीतराग जिनेन्द्र के अतिरिक्त कुदेवताओं की पूजा करता है वह नरक में जाता है । आपने इस बात को सुना और वह आपके हृदय में अच्छी तरह बैठ गई, उसी समय से आपने अन्य देवताओं को पूजना बन्द कर दिया, किन्तु मन्दिर तव भी जाना प्रारम्भ नहीं किया। वीतराग प्रभु की शरण की प्रेरणा :: .. दुगारी में जब आप अधिक दिन विद्याभ्यास नहीं कर सके तो फिर आप अपनी बहिन दाखांबाई के पास ही आकर वामणवास रहने लगे। उन दिनों उत्तर भारत में दिगम्बर मुनिराजों का अत्यन्त