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दिगम्बर जैन साधुः
[१११ पश्चात् उन्हीं के प्रधान मुनिशिष्यः शिवसागरजी महाराज ने आचार्य पद को सुशोभित: किया । उभयः आचार्यों ने अपने समय में चतुर्विधः संघ की अभिवृद्धि के साथ साथ धर्म की महती प्रभावना में भी अपना अपूर्व योगदान दिया। आचार्यत्रय की इस महान परम्परा में प्राचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के पश्चात् प्राचार्य श्री शान्निसागरजी के प्रशिष्य एवं आचार्य श्री वीरसागरजी के द्वितीय मुनिशिष्य श्री धर्मसागरजी महाराज वर्तमान में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हैं। उन्हीं आचार्यश्री का जीवनवृत्त प्रस्तुत निबन्ध में लिखा गया है ।
एक दिन अवनितल पर आँखें खुलीं, यह जीवन का प्रारम्भ हुआ। एक दिन अांखों ने देखना वन्द कर दिया, यह जीवन का अन्त हुआ । जीवन किस तरह जीया गया यह जीवन का मध्य है । कौन किस तरह जीवन जी गया यह महत्वपूर्ण प्रश्न है । इसो प्रश्न की चर्चा में से जीवन चरित्रों का गठन, लेखन और परिगुम्फन होता है । महान पुरुषों के जीवन चरित्र प्रेरणादायी होते हैं । अतः वर्तमान काल के परम्परागत आचार्य परमेष्ठी श्री धर्मसागरजी महाराज का जीवन चरित्र जो कि अत्यन्त प्रेरणादायक है, उसे इसी उद्देश्य से यहां प्रस्तुति किया है । ताकि उनके जीवन से प्रेरणा पाकर हम भी उन महापुरुष के पद चिन्हों पर चलकर अपने जीवन को उन्नत एवं महान बना सके।
जन्म एवं बाल्यकाल
भगवान् धर्मनाथ ने कैवल्य प्राप्ति की थी अतः केवलज्ञान कल्याणक की तिथि होने से जो दिवसकाल मंगल रूप था और जिस दिन चन्द्रमा ने अपनी षोड्शकलाओं से परिपूर्ण होकर अपनी शुभ्र ज्योत्स्ना से जगत: को आलोकित किया था उसी पौषी पूर्णिमा के दिन आज से ६७ वर्ष पूर्व विक्रम संवत १९७०. में राजस्थान प्रान्त के बून्दी जिलान्तर्गत गम्भीरा ग्राम में सद्गृहस्थ श्रेष्ठी श्री बख्तावरमलजी की धर्मपत्नी श्रीमती उमरावबाई की कुक्षी से एक बालक ने जन्म लिया जिसका नाम चिरंजीलाल रखा गया।
खण्डेलवाल जातीय छावड़ा गोत्रीय श्रेष्ठी बख्तावरमलजी भी अपने को धन्य समझने लगे जब उनके गृहांगण में पुत्ररत्न बालसुलभ क्रीड़ाओं से परिवारजनों को आनन्दित करने लगा। पारिवारिक स्थिति
आपके पिता वख्तावरमलजी एवं उनके अग्रज श्री कंवरीलालजी दोनों सहोदर भ्राता थे। दोनों ही भाईयों के मध्य दो संतानें थीं । अग्रज भ्राता के दाखां वाई नाम की कन्या एवं अनुज भ्राता