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दिगम्बर जैन साधु दि० जैन लालमन्दिरजी के उद्यान में सुन्दर मानस्तम्भ भी इन्हीं दोनों की प्रेरणा से ही शोभायमान हो रहा है।
माताजी का स्वभाव वड़ा सरल है । उनको वाणी में मधुरता है। निर्दोप संयम पालने से आत्मा में अद्भुत् शक्तियां विकसित होती हैं।
जैन समाज का भाग्य है कि अत्यन्त पवित्र हृदय वाली भद्र परिणाम युक्त आत्मकल्याण में सतत् सावधान रहने वाली माताजी; सर्वश्रेष्ठ और ज्येष्ठ तपस्विनी के रूप में शोभायमान हो रही है। १०१ वर्ष की आयु में भी व्रत नियम और चर्या के पालन करने में समर्थ हैं।
अभी माताजी का दिल्ली महिलाश्रम, दरियागंज, दिल्ली में स्वर्गवास हो गया।
प्रापिका सिद्धमती माताजी
स्वर्गीय श्री १०५ अायिका सिद्धमतीजी का पहले का नाम सतोबाई था । आपका जन्म विक्रम सं० १९५० के आश्विन मास में हुआ था। भारत की राजधानी देहली को आपकी जन्मभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । आपके पिता का नाम लाला नन्दकिशोर था तथा माता का नाम कट्टो देवी था। आप अग्रवाल जाति की भूपण और सिंहल गोत्रज' थीं । अापका विवाह ८ वर्ष की अल्पावस्था में हुआ था । परन्तु पांच वर्ष बाद ही आपको पतिवियोग सहना पड़ा।
आपने संसार की असारता देख जीवन को जल विन्दु सदृश क्षणिक समझा। इसलिए आत्मा का कल्याण करने के लिए वि० सं० १९९० में आपने सातवी प्रतिमा श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी से ले ली थी। फिर वि० सं० २००० में क्षुल्लिका दीक्षा सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट में ली थी। श्री १०८ आचार्य वीरसागरजी से नागौर में विक्रम संवत २००६ में आर्यिका दीक्षा ली थी। आपने विक्रम संवत २०२५ में प्रतापगढ़ में समाधिमरण प्राप्त किया था।