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दिगम्बर जैन साधु
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बनाने का सर्व श्रेय आपको ही है । आपने चारित्रचक्रवर्ति श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से द्वितीय प्रतिमा ली थी आपके ही प्रयत्न से सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर आचार्यश्री का ससंघ विहार हुआ था और संघपति सेठ पूनमचन्द्रजी घासीलालजी द्वारा अतीव समारोह पूर्वक पंचकल्याणक महोत्सव भी हुआ था । वि० सं० १९८४ में सम्मेदशिखर में आपने आचार्य शान्तिसागरजी से ब्रह्मचर्य प्रतिमा के व्रत ले लिये | अब आपका नाम ब्रह्मचारी ज्ञानचन्द्र हो गया । इस समय आपने दो घण्टे तक जैन धर्म का धारावाहिक तात्विक विवेचन भी किया था ।
कुण्डलपुर क्षेत्र में आपने दशम प्रतिमा के व्रत स्वीकार किये और कुछ काल बाद श्राचार्यश्री से ही क्षुल्लक दीक्षा ले ली और श्रापका नाम क्षुल्लक ज्ञानसागर हो गया । आत्मकल्याण के साथ ही आपने कुछ ग्रन्थों की टीकायें लिखीं, जिनमें रयण सागर, पुरुषार्थानुशासन, रत्नमाला, उमास्वामी श्रावकाचार के नाम उल्लेखनीय हैं । आपने गुजराती में जो ग्रन्थ लिखे उनमें जीव-विचार, कर्म विचार प्रमुख हैं । आपके ही आदेश से आपके भाईयों ने पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप की बोधक ३ फीट ऊँची प्रतिमाएं गजपन्था में विराजमान कराई तथा 'देहली के धर्मपुरा में भी अष्ट प्रातिहार्य मुक्त ३ फीट ऊँची प्रतिमा आपकी प्रेरणा से भाईयों ने विराजमान कराई' ।
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संघ-हित श्रेष्ठ कार्य :
क्षुल्लक ज्ञानसागरजी ने संघ - हित एक श्रेष्ठ कार्य यह किया कि उन्होंने सभी मुनिराजों को संस्कृत का अध्ययन कराया, क्षुल्लक व ऐलकों को भी संस्कृत शिक्षण लेने के लिए कहा। आचार्य शान्तिसागरजी आपके इस सत्कार्य की सराहना करते थे । तपोनिधि श्राचार्य कुन्थुसागरजी ने जो संस्कृत में ग्रन्थ लिखे उसकी पृष्ठ भूमि में आपकी मनोभावना थी । अध्यापन के साथ संघ के हित में आपने अनुभवी वैद्य का भी कार्य वैसे ही किया जैसे आपके पिताजी पड़ौसियों के लिए सहज भाव से करते थे ।
मुनि और आचार्य :
जब प्रतापगढ़ में सेठ पूनमचन्द घासीलालजी ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई तब केवलज्ञान कल्याणक के समय आपने फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशी वीर निर्वारण संवत् २४६० में श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी से मुक्तिदायिनी मुनि दीक्षा लेली । आचार्यश्री ने आपको सुधर्मसागर कहकर सम्बोधित किया | आपके साथ ही क्षुल्लक नेमिकीर्तिजी, मुनि श्रादिसागर बने और व्र० सालिगरामजी क्षुल्लक जितकीर्तिजी बने थे । यह कार्य लगभग चालीस हजार मानव मेदिनी के समक्ष हुआ । अब आप समन्तभद्र आचार्य के शब्दों में विषयवासना से परे ज्ञान-ध्यान, तप-रत साधु हो गये थे ।
संघ के समस्त कार्य आचार्य श्री शान्तिसागरजी ने आपको ही सौंप रखे थे अतएव उन्होंने आपकी अनिच्छा होते हुए भी आपको आचार्य पद सौंप दिया, आपने बहुत अनुनय-विनय की और पद से
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