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दिगम्बर जैन साधु
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इस लौकिक विवाह से मुझे संतोष नहीं होगा । मैं आलौकिक विवाह अर्थात् मुक्ति लक्ष्मी के साथ विवाह कर लेना चाहता हूं । माता पिता ने पुनश्च आग्रह किया । माता पिता की प्राज्ञोल्लंघन भय से इच्छा न होते हुए भी रामचन्द्र ने विवाह की स्वीकृति दी । मातापिता ने विवाह किया । रामचंद्र अनुभव होता था कि मैं विवाह कर बड़े बन्धनमें पड़ गया हूं ।
विशेष विषय यह है कि बाल्यकाल से संस्कारों से सुदृढ़ होने के कारण यौवनावस्था में भी रामचन्द्र को कोई व्यसन नहीं था । व्यसन था तो केवल धर्मचर्चा, सत्संगति व शास्त्रस्वाध्याय का था । बाकी व्यसन तो उससे घबराकर दूर भागते थे । इस प्रकार पच्चीस वर्ष पर्यन्त रामचन्द्र ने किसी तरह घर में वास किया । परन्तु बीच बीचमें यह भावना जागृत होती थी कि भगवन् ! मैं इस गृहबंधन से कब छूट ? जिनदीक्षा लेने का सौभाग्य कब मिलेगा ? वह दिन कब मिलेगा जब कि सर्वसंग परित्याग कर मैं स्वपरकल्याण कर सकू ं ?
दैववशात् इस बीच में मातापिता का स्वर्गवास हुआ । विकराल काल की कृपा से भाई और बहिन ने भी विदा ली। तब रामचन्द्रजी का चित्त और भो उदास हुआ । उनका बंधन छूट.. गया । तव संसार की अस्थिरता का उन्होंने स्वानुभवसे पक्का निश्चय करके और भी धर्ममार्गपर, स्थिर हुए ।
रामचंद्र के श्वसुर भी धनिक थे। उनके पास बहुत संपत्ति थी । परन्तु उनको कोई संतानं नहीं थी । वे रामचन्द्र से कई दफे कहते थे कि यह संपत्ति ( घर वगैरह तुम ही ले लो, मेरे यहां के
सब कारोवार तुम ही चलावो और रामचंद्र अपने श्वसुर को दुःख न हो इस विचार से कुछ दिन रहा भी । परन्तु मन मनमें यह विचार किया करता था कि "मैं अपना भी घरवार छोड़ना चाहता हूं । इनकी संपत्ति को लेकर मैं क्या करू" । रामचंद्रकी इस प्रकार की वृत्ति से श्वसुर को दुःख होता था परन्तु रामचन्द्र लाचार था । जब उसने सर्वथा गृहत्याग करने का निश्चय ही कर लिया तो उनके श्वसुर को वहुत अधिक दुःख हुआ ।
आपने श्रीपरमपूज्य आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के पाद मूल को पाकर अपने संकल्प को पूर्ण किया । सन् २५ में श्रवणबेलगोला के मस्तकाभिषेक के समय पर आपने क्षुल्लक दीक्षा ली व सोनगिरी क्षेत्रपर मुनिदीक्षा ली। और मुनि कुंथूसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए । जब आप घर छोड़ करके साधु हुए तब आपकी धर्मपत्नी धर्मध्यान करती हुई घर में ही रही थी ।
आपने अपनी माता सरस्वती का नाम सार्थक बनाया था। क्योंकि आप अपने नाम तथा काम में सरस्वतीपुत्र ही सिद्ध हुए थे । चतुर्विंशति जिनस्तुति, शांतिसागर चरित्र, बोधामृतसार, निजात्मशुद्धिभावना, मोक्षमार्गं प्रदीप, ज्ञानामृतसार, स्वरूपदर्शनसूर्य, नरेशधर्मदर्पण, मनुष्यकृत्यसार, शांतिसुधा