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आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज
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सः जातो येन जातेन, याति धर्मः समुन्नतिम् । . परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ।।
__ जीते तो सभी जीव हैं परन्तु जीना उन्हीं का सार्थक है जिनके जीवन से धर्म का उद्योत हो, धार्मिकता का विकास हो । आध्यात्मिक ज्योतिर्धर परम पूज्य १०८ चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागरजी महाराज के प्रधान शिष्य आचार्य, वीरसागरजी महाराज ऐसे ही पुरुषों में से थे जिन्होंने न केवल अपना ही जीवन सार्थक बनाया 'अपितु कई भव्यजीव भी आपके निमित्त से 'स्व धर्म' की ओर मुड़े।
ऐसी इस दिव्य विभूति का जन्म निजाम प्रान्त हैदराबाद स्टेट औरंगाबाद
( दक्षिण ) जिले के अन्तर्गत वीरग्राम में खण्डेलवाल जातीय गंगवाल गोत्रीय श्रीमान् श्रेष्ठिवर रामसुखजी की धर्मपत्नी सौ० भाग्यवती की दक्षिण कुक्षि से विक्रम संवत् १९३२ आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा की प्रातः शुभ वेला में हुआ था। जव आप गर्भ में थे तब माता कुछ-न-कुछ शुभ स्वप्न देखा करती थी और उनकी भावना दान-पूजा, . तीर्थवन्दनादि कार्यों को करने की रहा करती थी। माता-पिता ने बच्चे का नाम हीरालाल रखा। बालक के सुभग नाम कर्म के उदय के कारण उसे गोद में लेकर खिलाने वाला प्रत्येक स्त्री-पुरुष अपार हर्ष का अनुभव करता था।