________________
दिगम्बर जैन साधु
[५६ सागर को आचार्य पद देते हैं।" वीरसागर महाराज को यह महत्त्वपूर्ण सन्देश भेजा था, "आगम के अनुसार प्रवृत्ति करना, हमारी ही तरह समाधि धारण करना और सुयोग्य शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना, जिससे परम्परा बराबर चले।" वीरसागर महाराज उस समय खानियाँ जयपुर में विराजमान थे।
___महाराजश्री की समाधि-स्थिति की प्रानन्दोपलब्धि की कल्पना प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान के जाल में फंसा गृहस्थ कैसे कर सकता है। महान् कुशल वीतराग योगीजन ही उस परमामृत की मधुरता को समझते हैं । महाराज उत्कृष्ट योगसाधना में संलग्न थे। घबराहट वेदना का लेश भी नहीं था। जैसे ३५ दिन बीते, ऐसे रात्रि भी व्यतीत हो गई। रविवार का दिन था। अमृतसिद्धि योग था । १८ सितम्बर भादो सुदी द्वितीया नभोमण्डल में सूर्य का आगमन हुआ, घड़ी में छह बजकर पचास मिनट हुए थे कि चारित्र चक्रवर्ती, साधु शिरोमणि, क्षपकराज ने स्वर्ग को प्रयाण किया।
आचार्य महाराज ने सल्लेखना के २६ वें दिन के अपने अमर संदेश में दिनांक ८-६-५५ को कहा था
"सुख प्राप्ति जिसको करने की इच्छा हो उस जीव को हमारा आदेश है कि दर्शन मोहनीय कर्म का नाश करके सम्यक्त्व प्राप्त करो। चारित्रमोहनीय कर्म का नाश करो। संयम को धारण करो।"
संयम के बिना चारित्रमोहनीय कर्म का नाश नहीं होता। डरो मत, धारण करने में डरो मत । संयम धारण किए बिना सातवां गुणस्थान नहीं होता है। सातवें गुणस्थान के बिना आत्मानुभव नहीं होता है । प्रात्मानुभव के बिना कर्मों को निर्जरा नहीं होती। कर्मों की निर्जरा के बिना केवलज्ञान नहीं होता । ॐ सिद्धाय नमः।
सारांश : धर्मस्य मूलं दया। जिनधर्म का मूल क्या है ? सत्य, अहिंसा। मुख से सभी सत्य, अहिंसा बोलते हैं, पालते नहीं। रसोई करो, भोजन करो-ऐसा कहने से क्या पेट भरेगा? क्रिया किए बिना, भोजन किए बिना पेट नहीं भरता है बाबा । इसलिये क्रिया करने की आवश्यकता है । क्रिया करनी चाहिये, तब अपना कार्य सिद्ध होता है ।
सम्यक्त्व धारण करो, संयम धारण करो तब आपका कल्याण होगा, इसके बिना कल्याण नहीं होगा।
उन साधुराज के चरणों में कोटि-कोटि नमन ।