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१६-२० वीं सदी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य आध्यात्मिक ज्योतिर्धर चारित्र चक्रवर्ती परमपूज्य १०८ महर्षि
प्राचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज
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हमारा भारत एक आध्यात्म प्रधान देश है। अपनी आध्यात्मिक संस्कृति के कारण ही यह जगत में सम्मानित, प्रतिष्ठित और श्रेष्ठ स्वीकार किया जाता है । रत्न प्रसवा भारत
भूमि ने विश्व को महान् तेजस्वी, देदीप्यमान और वन्दनीय...: नमस्करणीय अनेक नर-रत्न दिए हैं । आज से लगभग २५८०
वर्ष पहले इस पुण्य भूमि पर चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने अपनी उत्कृष्ट आत्म साधना तथा तप
और त्याग के प्रभाव से दुनियां को हिंसा के पतन-मार्ग में प्रवृत्त होने से बचाया तथा अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत का सम्यक् मार्ग दिखाकर जीने की-जीवनयापना की सही विधि बताई।
तीर्थकर महावीर की परम्परा में उन्हीं के पद चिन्हों का अनुकरण करने वाले भगवान कुन्दकुन्द, जिनसेन, समन्तभद्र, विद्यानन्दि, नेमिचन्द्र, अकलंकदेव, पद्मनन्दी आदि अनेक महान विद्वान सच्चरित्र तपस्वी साधु सन्त हुए जिन्होंने अपने-अपने युग में महावीर प्रभु के आध्यात्मिक सन्देश और सच्चे धर्म का प्रसार किया।
इसी आदर्श दिगम्बर साधु सन्त परम्परा में वर्तमान युग में जो तपस्वी सन्त हुए उनमें आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज एक ऐसे प्रमुख साधुश्रेष्ठ तपस्वीरत्न हुए हैं जिनकी अगाधविद्वत्ता, कठोरतपश्चर्या, प्रगाढ़ धर्मश्रद्धा, आदर्शचारित्र और अनुपमत्याग ने धर्म की यथार्थ ज्योति प्रज्ज्वलित की। आपने लुप्तप्राय, शिथिलाचारग्रस्त मुनि परम्परा का पुनरुद्धार कर उसे जीवन्त किया, वह परम्परा अनवरतरूप से अद्यावधि प्रवहमान है ।