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धर्म-कर्म - रहस्य
मन पवित्र रखना, क्रिया पवित्र रखना, कुल पवित्र रखना, शरीर पवित्र रखना और वचन पवित्र रखना, यह पाँच प्रकार की पवित्रता है ।
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ब्रह्मण्यात्मार्पणं यत्तत् शैौचमान्तरिकं स्मृतम् । महानिर्वाण तन्त्र
ब्रह्म में आत्मा को अर्पण करना आन्तरिक शौच है । मृदां भारसहस्रस्तु कोटिकुम्भज लैस्तथा । कृतशौचोऽविशुद्धात्मा स चाण्डाल इति स्मृतः ॥ बृहन्नारदीय पुराण अध्याय ३१
शैौचे यत्रः सदा कार्यः शैौचमूलो द्विजः स्मृतः । गौ चाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः ॥२॥ मृत्तिकानां सहस्रण चोदकुम्भं शतेन च । न शुद्धयन्ति दुरात्मानेो येषां भावो न निर्मलः ॥ १० ॥ अ० ५ दक्षस्मृति दुष्ट-चित्त जन यदि हज़ार भार मिट्टी और कोटि जल के कलशों से शौच (पवित्रता) करें तो भी वे चाण्डाल ही के तुल्य हैं । शौच के पालन में सदा यत्न करना चाहिए। द्विजों के धर्म-कर्म का मूल शौच है; शौचाचार से विहीन के सम्पूर्ण कर्म निष्फल - होते हैं। जिन पुरुषों का अन्तःकरण शुद्ध नहीं है वे दुष्टात्मा हज़ार बार मिट्टी और सौ घड़े जल से भी शुद्ध नहीं हो सकते
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