SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म-कर्म-रहस्य के प्रति बाहर से कोई अपकार का कर्म न किया गया किन्तु चित्त में द्वेष-भाव उत्पन्न हुआ तो हिंसा हो गई और इससे दोनों की अवश्य हानि होती है। किसी के द्वारा हानि होने पर यह समझना चाहिए कि प्रथम दोष-कर्ता आत्म. दृष्टि से उससे भिन्न नहीं है; दूसरे, उसको हानि उसके पूर्व के प्रारब्ध कर्म के अनुसार हुई जिसके कारण पूर्व के दोष का परिमार्जन होकर वह उऋण हो गया। इस कारण उसकी प्रतिनिवृत्ति क्षमा न होकर ऋण-शोधन हुआ। तीसरे, उसमें भी वर्तमान समय में हिंसा की भावना अभ्यन्तर में अवश्य है जिसके कारण यह आघात उसको हुआ, नहीं तो कदापि नहीं होता। अतएव अपने दोष का प्रकाश हो जाने से उसका उपकार हुआ जिसके नष्ट करने की चेष्टा उसे करनी चाहिए। चौथे, इस अपराध को जान बूझकर सहर्ष क्षमा करने से उसको क्षमा-गुण की प्राप्ति होगी जो एक परम लाभ होगा। पाँचवें, उसको मालूम हो गया कि अपराध-कर्ता का अपराध अज्ञान और उसका परिणाम द्वेष-भाव के कारण हुमा जो सर्वत्र एकात्म भाव की दृष्टि से उसका स्वयं अज्ञान है, इस कारण उसका अव यह कर्तव्य है कि क्षमा द्वारा अथवा अन्य प्रकार से कर्ता के अज्ञान और दुष्ट स्वभाव को मिटाने का यत्न किया जायं । छठे, यह कि यदि वह भी हानि के बदले कता की हानि करेगा, तो अपराध-कर्ता के द्वेषकारी स्वभाव की वृद्धि हो जायगी जिसके कारण वह फिर भी उसकी हानि करेगा।
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy