SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ धर्म-कर्म-रहस्य ही है, क्योंकि मरने के बाद और पहले भी उसका इन विषयों से वियोग अवश्य होगा। इस प्रकार जन्म भर घोर परिश्रम, चिन्ता और कष्ट करके जो प्राप्ति की गई उसमें से मरने के वाद जीवात्मा के साथ एक भी न गया और सम्पूर्ण जीवन का परिश्रम अन्तिम परिणाम की बष्टि से वेकार हुआ। सत्य तो यह है कि मनुष्य-जीवन का मुख्य लक्ष्य अज्ञान और कामात्मक वासना को दूरकर ज्ञान-भक्ति की प्राप्ति करना है जिससे संसार और परमार्थ दोनों सुधरते हैं और उसका परिणाम जन्म-जन्मान्तर तक वर्तमान रहता है और उसके द्वारा इस लोक और परलोक में भी यथार्थ प्रानन्द की प्राप्ति होती है। धैर्य और सन्ताप का धारण करना मानो गीता का निष्काम कर्म, कर्तव्य अर्थात् धर्म समझकर, करना है। उस कर्त्तव्यपालन धर्म को उत्तम प्रकार से करना चाहिए और उसके निमित्त आवश्यक वस्तु, गुण आदि की प्राप्ति के लिये अवश्य यत्न करना चाहिए जिसका न करना अधर्म है किन्तु फल की सिद्धि और असिद्धि में समान रहना चाहिए (२-४७ और ४८ और ६-१)। इस वृत्ति के धारण करने से धर्म की भी प्राप्ति होती है और सांसारिक व्यवहार के कार्य की सिद्धि में भी बड़ी सुगमता होती है और उसकी सम्भावना बढ़ जाती है, जैसा कि कहा जा चुका है। आजकल थोड़े से ऐसे लोग भी हैं जो सांसारिक लाभ के लिये आत्म-शक्ति का प्रयोग करते हैं किन्तु यह उसका दुरुपयोग है, क्योंकि वे तब
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy