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धर्म-कर्म-रहस्य होता है। श्रीहरिश्चन्द्र, श्रीभगवान् रामचन्द्रजी, जगज्जननी श्रीमती सीताजी और पाण्डव आदि ने कष्ट के आने पर जो बहुत बड़ा परमाश्चर्य-जनक धैर्य का उदाहरण संसार को दिया उसका यही तात्पर्य था कि हम लोग भी उनका अनुसरण कर लाभ उठावें। यदि ये सव कष्ट आने : पर धर्म का त्याग करते तो कट शीव्र दूर हो जा सकता था, किन्तु ऐसा नहीं किया गया। यही धैर्य है। वन-वास के कष्ट के समय जव राजा युधिष्ठिर से यह कहा गया कि उनकी अनुमति से यदु-वंश के योद्धागण कौरवों को पराजित कर उनको राज्यसिंहासन पर स्थित कर देंगे तो युधिष्ठिर ने कहा कि मैं वनवास-अज्ञातवास के कष्ट से मुक्त होने और राज्य पाने के निमित्त भी अपने वाक्य को असत्य नहीं कर सकता हूँ। ऋषि वशिष्ट के जब सौ पुत्रों का विश्वामित्र ने नाश कर दिया उस दिन की रात्रि में वशिष्ठजी बड़ी सावधानी से एक लिखित वाक्य को पढ़ रहे थे. और विचार कर रहे थे। उस समय उनकी स्त्री ने कहा कि अब हम लोगों को इस समय अपने शोक के ताप को किंचित् शान्त करने के लिये बाहर चन्द्रमा की ज्योति में जाना चाहिए। यह सुनकर वशिष्ठजी ने कहा कि "यह वाक्य, जिस पर वे विचार कर रहे हैं, चन्द्रमा से भी अधिक शीतल है और यह उसी विश्वामित्र का है जिसके द्वारा हम लोगों के पूर्व के प्रारब्ध कर्म ने सौ पुत्रों का नाश करवाया है। यह धैर्य और