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धर्म-कर्म-रहस्य न कि स्वार्थ-साधन के निमित्त अथवा वड़प्पन या लघुता के र लिये, जैसा कि आजकल लोग समझते हैं।
इन विशेष धर्मों को अर्थात् अपने व्यवसाय और जीविका को, सत्य और न्याय से, विश्व-विराट के निमित्त चज्ञ की भाँति करने से वह कर्म यज्ञ और योग है और ब्रह्म-प्राप्ति की उत्तम साधना है। केवल इसमें स्वार्थ और संकीर्णभाव का त्याग करना चाहिए और सिद्धि और असिद्धि में समान रहना चाहिए।' यह तभी सम्भव है जब कि स्वार्थ और ममत्र को त्यागकर कर्तव्य की भाँति यज्ञ-पुरुष परमात्मा के निमित्त किया जाय ।
। साधारण धर्स इन विशेष धमों का भी आधार सार्वजनिक धर्म है, जो अन्य सब धर्मों की भित्ति है और जिसकी अपेक्षा अन्ध धर्म उपधर्म हैं। कहा गया है कि धर्म संसार का आधार है किन्तु वह आधार-धर्म मुल्यकर साधारण धर्म ही है। यह धर्म सवके लिये सार्वभौमिक है अर्थात् सब देश के सब धर्मों और सब लोगो को मान्य है। इस धर्म में कोई सङ्कीर्णता नहीं, कोई मतभेद नहीं, कोई विवाद नहीं, कोई विद्वेष अथवा वैमनस्य नहीं और सब धर्मों की प्राप्ति के मुख्य लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति का यह धर्म साक्षात् साधन है जिसमें किसी को सन्देह अथवा मतभेद हो नहीं सकता है। संसार के