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________________ १२ धर्म-कर्म-रहस्य पर के अहित से भी निज-हित-साधन किया जाता है। किन्तु यह स्वार्थभाव और इसका साधन, सृष्टि के ईश्वरीय नियम (यज्ञ) के विरुद्ध होने के कारण, यथार्थ में कदापि सुखद नहीं है वरन् अनर्थ का मूल है, यद्यपि प्रमाद से क्षणिक सुख का कारण मालूम पड़ता है। गीता का वचन है कि परोपकारार्थ यज्ञ ( त्याग) न करनेवाले को इस लोक में भी सुख नहीं मिलता, परलोक तो दूर रहा (अ० ४ श्लोक ३१ )। सव जीवों के इस सृष्टि रूपी विराट-पुरुष परमात्मा के भिन्न भिन्न अङ्ग प्रत्यङ्ग होने के कारण, एक की हानि और लाभ से दूसरे की भी हानि और लाभ है। एक की सहायता की अपेक्षा दूसरे को रहती है जिसके बिना कोई कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। किसी भी व्यक्ति के, वह कितना भी प्रभाव और । वैभवशाली क्यों न हो, केवल शरीर-यात्रा के दैनिक कार्य भी विना दूसरों की सहायता के कदापि सम्पन्न नहीं हो सकते हैं। अतएव सब को इस नानात्व में एकात्म भाव का खयाल रखकर आपस में एकता और प्रेम का बर्ताव रखना, विरोध त्यागना और एक को दूसरे का उपकार और श्रादि किसी एक सिद्धान्त का सूचक नहीं है किन्तु विलक्षण साधारणभाव में व्यवहृत है। इस शब्द का यही भाव है कि परमेश्वर सृष्टि के एक मात्र प्रादि-कारण, नियामक और सर्वत्र व्याप्त हैं जिसके कारण चैतन्य सत्ता में एकता-समानता है और जड़-सत्ता के कारण नानात्व है।
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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