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धर्म-कर्म-रहत्य त्याग है, कदापि स्वार्थ-मूलक नहीं है। ईश्वर स्वयं सृष्टिहितार्थ अपने दिव्य गुण, सामर्थ्य और आनन्द को वितरण करने के लिये यह सृष्टि-यज्ञ कर रहे हैं जिसके वे अधिष्ठाता है और प्रत्येक प्राणी अध्वर्यु अथवा होता है । यह यज्ञ, जिसका अनुष्ठान प्राणियों के कल्याण के लिये ही किया गया है, उसमें प्रत्येक प्राणी जो "होता है उसको अपने अपने नियत कर्तव्य का पालनरूपी होन करना चाहिए ताकि यज्ञ की पूर्ति होकर सवों का कल्याण हो। इस विश्व-विराट रूपी महायज्ञ में जिस व्यक्ति का उसकी योग्यता, स्वभाव, अवस्था आदि के अनुसार जो नियत स्थान और कर्त्तव्य है उसका निःस्वार्थ भाव से यज्ञ ( कर्तव्य ) की भाँति पालन करना उसका मुख्य धर्म है और इसी की संज्ञा सहज धर्म, स्वधर्म और विशेष धर्म है। यह भिन्न भिन्न लोगों का भिन्न भिन्न प्रकार का है और वर्णाश्रम धर्म, सांसारिक व्यवसाय आदि इसी के अन्तर्गत है। प्रत्येक व्यक्ति अथवा समूह के अपने अपने विशेष धर्म के पालन करने पर ही उसका और जनसमुदाय का भी कल्याण है और इसी प्रकार उसका पालन न करने से उसकी और जनसमुदाय की भी हानि है। यदि अन्न उपजानेवाले अपने स्वधर्म-अन्न उपजाने के कर्तव्य का पालन न करें तो अन्न के प्रभाव से उनकी और जनसमुदाय की भी हानि होगी। इसी प्रकार वन का आयोजन करनेवाले यदि अपने स्वधर्म की उपेक्षा करें तो वे स्वयं और दूसरे भी विवस्त्र रहेंगे। कर्तव्य को धर्म की दृष्टि