________________
धर्म का तत्त्व त्मभाव है। इसी कारण विश्व में सव के सव केवल उस आनन्द का ही अन्वेपण कर रहे हैं किन्तु अज्ञानता के कारण उपयुक्त स्थान को छोड़कर वाह्य विषय में, जहाँ उसका स्वतः अभाव है किन्तु जहाँ केवल उसकी छायामान है, खोजते हैं और दुःख भोगते हैं। विषयो लोग भी विषय-सुख में इस आनन्द का ही अन्वेषण करते हैं। इस यज्ञ-धर्म की भित्ति है पृथकभाव और स्वार्थ को स्वाहा ( त्याग )कर सर्वात्मभाव की दृष्टि को धारण करना, इस कारण दूसरे के सुख दुःख को अपना सुख दुःख समझ उनके यथार्थ सुख की वृद्धि और दुःख की निवृत्ति के लिये यथासाध्य यत्न करना और इस प्रकार इस यज्ञ-धर्म द्वारा यज्ञपुरुप ईश्वर का भजन करना (गोता अ० ६ श्लो० २६ से ३२ तक ) चाहिए। इस बाह्य नानात्व में एकात्मभाव रूप धर्म के अभ्यास ( समदर्शिता ) से ईश्वर के दिव्य गुणों को अपने में प्रकाशित कर ईश्वर की प्राप्ति और उनके आदि-सङ्कप की पूर्ति होती है (गीता अ० १३ श्लो० ३ अथवा ३१ और मनुस्मृति अ० १२ श्लोक १२५) ।
ऊपर के कथनानुसार धर्म यथार्थ में यज्ञ अर्थात् त्यागमूलक है। यथार्थ यज्ञ सर्वदा परार्थ के निमित्त स्वार्थ का
* एवं यः सर्वभूतेषु पश्यत्यात्मानमात्मना। स सर्वसमतामेत्य ब्रह्माभ्येति परं पदम् । इस प्रकार जो मनुष्य जीवों में आत्मरूप से अपने को देखता है, वह सब में समत्वभाव प्राप्त करने से सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मापद को प्राप्त होता है।