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धर्म-कर्म - रहस्य
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परम हितकारी है। कर्म के सदुपयोग से परम पुरुषार्थ और शाश्वत पद का लाभ हो सकता है। देवता लोग इस भूलोक में मनुष्य शरीर धारण करने के लिये तरसते हैं; क्योंकि उनके लोक और शरीर केवल भोग के लिये हैं, कर्म के लिये नहीं जिसके कारण वे अपनी अवस्था से उच्च अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकते। यह मर्त्य-लोक कर्म-भूमि है और मनुष्य शरीर कर्म क्षेत्र है जिसके कारण मनुष्य अपने कर्म द्वारा ब्रह्म - लोक से भी ऊपर जा सकता है । श्रीमद्भागवत एकादश स्कन्ध का वचन हैलब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।
तूर्णं यतेत न पतेद्नुमृत्यु यावत्
निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्व्वतः स्यात् ॥२९॥
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभ
प्लव ं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् ।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं
पुमान् भवान्धिं न तरेत् स श्रात्महा ||१७||
શ્ર॰ ૨૦
यह मनुष्य-शरीर यद्यपि अनित्य है फिर भी दुर्लभ है । यह कई जन्मों के बाद बड़े भाग्य से मिलता है। यह शरीर पुरुषार्थ यानी मुक्ति का साधन है।, नरदेह क्षणभंगुर है,