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धर्म-कर्म-रहस्य. सधाना पड़ता है। दुःख मिलने की. अनिच्छा रहने पर भी स्वभाव के वश में उस विषय-भोग का दासत्व स्वीकार करना पड़ता है। उक्त दासत्व की अवस्था में स्वास्थ्य, सुख, शान्ति, धर्म, वेज, वल, विद्या, ज्ञान आदि जो आन्तरिक वपौती विभव है और जो प्रानन्द और शान्ति के देनेवाले तथा कल्याण करनेवाले हैं उनको स्वाहा कर दिवालिया हो जाना पड़ता है। ___ यदि किसी कर्म से तत्काल में कुछ क्लेश भी सहना पड़े, किन्तु भविष्यत् में वह सुखद हो और वह सुख दीर्घ काल तक रहनेवाला हो तो उस कर्म को अवश्य करना चाहिए। इसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता में सात्विक, राजसिक और तामसिक सुख के वर्णन हैं जिनमें राजसिक और तामसिक सुख त्याज्य हैं और केवल सात्विक ग्राहर है। लिखा है
यत्तदने विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् । तत्सुखं सात्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिमसादजम् ॥ ३७ ।। विषयेद्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् । परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥३८॥ यदने चानुवंधे च सुखं मोहनमात्मनः । निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ३९ ॥
अ० १८ जो भोगकाल में विष के समान दुःखकर है किन्तु परिणाम में अमृततुल्य है ऐसा सुख, जो प्रात्मा में बुद्धि की