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________________ दैव और पुरुषकार • जिसकी उसने हानि की, दूसरे जन्म में उसका एक मात्र पुत्र होकर जन्म लेगा और युवा होने के पहिले मरके उसको पुत्रशोक दे कर्म का बदला सधावेगा। एक जन्म में जिसको हम लोग व्यर्थ घृणा करते, हानि करते और शत्रु समझते हैं, वहीं प्राय: दूसरे जन्म में हम लोगों का सम्बन्धी अथवा पड़ोसी अथवा सरोकारी होकर जन्म लेता है जिसके साथ प्रायः सदा विरोध ही बना रहता है और उसके द्वारा दुःख भोगना पड़ता है। पूर्ण ज्ञानी सिद्ध अथवा योगी प्रायः प्रारब्ध कर्म के वेग को कम कर दे सकते हैं जो उनको अपने प्रारब्ध कर्म का ज्ञान हो जाने के कारण होता है। यदि उनको जान पड़ेगा कि पूर्वजन्म में जो उन्होंने अमुक श्रेणी के पशुओं को दुःख दिया था उसका फल अमुक समय में अमुक रूप में आवेगा तो उसके बहुत पूर्व ही से वे ऐसा कर्म करना प्रारम्भ करेंगे जिससे उस श्रेणी के पशुओं को सुख मिलेगा जिसके कारण आनेवाले प्रारब्ध कर्म की कठिनाई बहुत कम हो जायगी। ऐसे ही वे अन्य दुष्ट प्रारब्ध कर्म के विरुद्ध उपयुक्त उत्तम कर्म को ठोक. समय पर उपयुक्त प्रकार से करके उसका बहुत कुछ हास कर दे सकते हैं । • यह भी नियम है कि प्रत्युत्कट पुण्य और पाप के कर्म का फल यहीं मिल जाता है। लिखा है विभिर्मासैस्त्रिभिः पक्षस्त्रिभिर्वस्त्रिभिर्दिनैः ।। . अत्युत्कटः । पुण्यपापैरिहैव फलमश्नुते ॥ . ...
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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