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________________ १५५ देव और पुरुषकार और परिणाम को दैव कहते हैं। ऐसा समझना कि "प्रारब्ध में होगा तो स्वतः आवश्यक पदार्थ मिल जायँगे अथवा विवेकी और ज्ञानी हो जाऊँगा, अपने करने से कुछ न होगा और इसी पर भरोसा रखकर उसके निमित्त यान नहीं करना अविवेक है। बिना यत्न किये और केवल प्रारब्ध के भरोसे पर घावश्यकता की पूर्ति और उन्नति साधारणतः न होगी। लिखा है अकृत्वा मानुषं कर्म यो दैवमनुवर्तते । वृथा श्राम्यति सम्पाप्य पति' क्लीवमिवाङ्गना ॥२०॥ कृतः पुरुषकारस्तु दैवमेवानुवर्तते । न दैवमकृते किश्चित् कस्यचिदातुमर्हति ॥२२॥ ____ महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय ६ जो मनुष्य पुरुषार्थ न करके केवल दैव पर भरोसा रखता है वह व्यर्थ परिश्रम करता है, जैसे नपुंसक पुरुष को पाकर स्त्री का परिश्रम वृथा है। और भी यथा ह्य केन चक्रेण न रथस्य गतिर्थवेत् । : एवं पुरुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥ १५१ ॥ दैवे पुरुषकारे च कर्म-सिद्धिर्व्यवस्थिता। .. . . तत्र दैवमभिव्यक्तं पौरुषं पौर्वदैहिकम् ।। ३४९ ॥ .. याज्ञवल्क्य०, अ०३ .
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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