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________________ १४२ धर्म-कर्म-रहस्य खभाव समझ जाते हैं। यही यथार्थ वर्ण की उपयोगिता है। जो कि वाह्य दृष्टि में अदृश्य रहता है। ऊपर कथित सिद्धान्त से यह भली भाँति प्रकट है कि शरीर की क्रिया के सिवा मानसिक भावना का भी बड़ा प्रबल प्रभाव है और यह प्रभाव मनुष्य के इस जन्म से लेकर मरने के वाद लोकान्तर तक, और आगामी जन्म तक चला जाता है। मनुष्य की यथार्थ उन्नति और अवनति मानसिक भावना पर ही विशेषकर निर्भर है। कोई मानसिक भावना व्यर्थ नहीं होती. उसका उत्तम अथवा दुष्ट प्रभाव अवश्य और विशेष होता है। कर्म का कारण भी भावना है, यही कारण है कि शम और दम आदि को ऋषियों ने बड़ा आवश्यक बताया है। हम लोग अपनी मानसिक भावना द्वारा अपना ही हानि-लाभ नहीं करते किन्तु उससे दूसरों का भी हानि-लाभ करते हैं। अतएव मानसिक भावना, सङ्कल्प और वृत्ति के उत्पन्न करने में हम लोगों को सदा और निरन्तर वैसा ही सावधान रहना चाहिए जैसा कि कर्म के लिये। कदापि कोई दुःसंकल्प, कुत्सित भावना और दुश्चिन्ता को अन्तःकरण में नहीं आने देना चाहिए और यदि आवे तो शीघ्र उनके विरुद्ध शुद्ध भावना द्वारा उनका दमन करना चाहिए । सदा निरन्तर पवित्र भावना, मङ्गल-कामना, शुभचिन्ता, कल्याणकारी और निष्काम परोपकार, ईश्वर में अनुरक्ति आदि के अभ्यास में प्रवृत्त रहना चाहिए। .
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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