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________________ म १२३ पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः। असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मय स्थाचतुर्विधम् ॥ ६॥ अदत्तानामुपादानं हिसा चैवाविधानतः । परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् ॥ ७॥ मनुस्मृति, अ० १२ अन्याय से दूसरे के धन को किस प्रकार लेंगे ऐसी चिन्ता, किसी का द्रोह सोचना और ऐसा निश्चय रखना कि परलोक कुछ नहीं है और शरीर ही आत्मा है, ये तीन मन के अशुभ कर्म हैं ।।५।। गाली देना, झूठ बोलना, किसी की अनुपस्थिति में उसकी निन्दा करना और अनावश्यक बातो को बोलना ये चार प्रकार के अशुभ वाचन कर्म हैं ॥६॥ अन्याय से दूसरे की वस्तु का हरण करना, स्वार्थ से किसी को दुःख देना और दूसरे की स्त्री के सङ्ग भोग करना ये तीन प्रकार के अशुभ शारीरिक कर्म हैं ॥ ७ ॥ __ इस प्राकृतिक जगत् में भी किसी का, वह तुद्राविक्षुद्र क्यों न हो, नाश नहीं होता है किन्तु बाह्य दृष्टि से जो मरण अथवा नाश है वह केवल रूप और उसके साथ नाम का परिवर्तन है। घड़े को तोड़ने से वह टुकड़ा टुकड़ा हो जाता है। उसको पीस देने से चूर्ण हो जायगा, किन्तु कदापि उसका नाश अथवा लोप न होगा। अग्नि में भी वस्तु के पड़ने से वह धूम हो जाता है अथवा अणु का आकार धारण करता है किन्तु
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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