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________________ धर्म की प्रधानता क्रोधः सत्यवचनं संविभागः क्षमा दया | प्रजनः स्वेषु दारेषु शौचमद्रोह एव च ॥ आर्जवं भृत्यभरण' नवैते सार्ववर्णिकाः ॥ ७ ॥ तत्रैव अ० ६० ११३ तपो यज्ञादपि श्रेष्ठमित्येपा परमाश्रुतिः । तत्त तपः प्रवक्ष्यामि विद्वांस्तदपि मे शृणु ॥ १७॥ अहिंसा सत्यवचनमानृशस्यं दमो घृणा । एतत्तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम् || १८ || तत्रैव, अ० ७-८ किसी की हानि किये बिना जिस धर्म का पालन हो उसी को सज्जन धर्म कहते हैं। किसी की क्षति न करना, सत्य बोलना, जिसका जो हो उसको उसे देना, दया, इन्द्रियनिग्रह, अपनी स्त्री में केवल सन्तति के अर्थ प्रसंग, कोम - लता, अधर्म करने से स्वाभाविक निवृत्ति और मन की शान्ति, इनको स्वायंभुव मनु ने प्रधान और इष्ट ( मुख्य ) धर्म कहा है। इसलिये हे कौन्तेय ! अध्यवसाय द्वारा इनका पालन करो। क्रोध नहीं करना, सत्यं बोलना, जिसका जो हो उसको उसे देना, क्षमा, दया, सिर्फ अपनी स्त्री में केवल सन्तति के अर्थ में प्रसंग, शौच, अहिंसा, कोमलता, भृत्यां का पालन ये धर्म सब वर्णों को करना चाहिए । सर्वश्रेष्ठ वेद ने तपस्या को सबसे बड़ा कहा है, इसलिये तप क्या · C
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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