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१८. धर्म-दर्शन
धर्म-दर्शन माने सत्यदर्शन । यहाँ दर्शन का अर्थ न फिलासफी है, न तत्त्वविवेचन है, न किसी रूप-आकृति को देखना ही। यहाँ दर्शन का अर्थ है प्रत्यक्ष सत्य की स्वानुभूति । जीवन-जगत की सच्चाइयों को, प्रकृति के सर्वव्यापी विधान को प्रत्यक्षानुभूति द्वारा जानना ही धर्मदर्शन है, सत्यदर्शन है।
धर्म दुखों से छुटकारा पाने के लिए है और दर्शन है इसका वैज्ञानिक अभ्यास । प्रकृति के वे नियम जो हम पर हर क्षण लागू होते हैं, जिनका हमसे सीधा सम्बन्ध है उनको जानना, समझना, स्वीकारना और अपने आपको उनके अनुकूल ढालना, यही धर्मदर्शन का उद्देश्य है। दर्शन के अभ्यास द्वारा हम इसमें जितने-जितने पकते हैं, उतने-उतने धर्म में प्रतिष्ठित होते हैं, सुखशांति के सच्चे अधिकारी होते हैं। धर्मदर्शन का अभ्यास हमारे आध्यात्मिक उत्थान का सोपान-पथ है।
प्रकृति के वे नियम जिनका हमारे दुःखों से और दुख-विमोचन से, हमारे बंधनों से और बंधन-विमुक्ति से सीधा सम्बन्ध है, उन्हें जानना और जानकर उनका अपने भले के लिए उपयोग करना ही धर्म है। जो दुखों का कारण है उसका निवारण करना और जो दुःख-विमुक्ति का उपाय है उसको धारण करना यही सर्वव्यापी विधान से समरस कराने वाला आत्महित व सर्वहितकारी धर्म है। प्रकृति का कारण-कार्य वाला विधान सब पर लागू होता है। यह विधान न किसी पर कोप करता है. न कृपा। कुदरत किसी का लिहाज नहीं करती। जो कानून तोड़ता है वह दंडित होता है, जो पालता है वह पुरस्कृत । अग्नि का धर्म जलाना है, यह प्रकृति का विधान है। हम अपनी नासमझी