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सत्य ही धर्म है
इनके अर्थों की ओर ध्यान नहीं जाता और ध्यान चला भी जाय तो वह भी उतना ही बेमाने है जबकि अर्थ जीवन में उतरते नहीं । सम्प्रदाय और धर्म में यही मौलिक भेद है। सम्प्रदाय शब्दों को महत्त्व देता है और धर्म अर्थों को तथा उन्हें धारण करने को। हम अपने आपको हजार सम्प्रदाय-विहीन कहें, परन्तु सच्चाई यही है कि हमारे लिए सम्प्रदाय प्रमुख हो गए हैं। इसीलिए शब्द प्रमुख हो उठे हैं, अर्थ गौण । प्रत्यक्ष अनुभूति तो लुप्तप्राय हो गयी है । जिसे देखो शब्द सत्य के पीछे पागल है। बहुत थोड़े हैं जो अनुमान सत्य की ओर बढ़ते हैं। प्रत्यक्ष सत्य तक जाने की किसी को फुर्सत ही नहीं और कोई उसकी आवश्यकता भी महसूस नहीं करता ।
हम हिन्दुओं की बाँछे खिल जाती हैं जबकि कोई गैर हिन्दू गीता का कोई श्लोक अपने भाषण में उद्धृत करता है। इसी प्रकार हम बौद्धों की व जैनियों की हृदयतन्त्री के तार बजने लगते हैं जबकि कोई अबौद्ध या अजैनी धम्मपद या महावीर वाणी को अपने भाषणों में उद्धृत करता है । कैसा चिपकाव पैदा कर लिया है हमने अपने-अपने सम्प्रदाय की वाणियों से। जिस परम्परा और परिवेश में हम जन्मे और पले हैं उसके धर्म-ग्रन्थों के प्रति श्रद्धा, आदर और झुकाव होने में कोई दोष नहीं, क्योंकि उन्हीं से हम प्रेरणा और मार्ग-दर्शन पाते हैं। परन्तु दोष आसक्ति से है, चिपकाव से है। यह हमारे चिपकाव का ही परिणाम है कि यदि वही सच्चाई कोई अन्य सम्प्रदाय वाला अपनी भाषा में बोले और अपने महापुरुष द्वारा कही हई बताए तो हमारा मन कितना चिड़चिड़ा उठता है ? सच्चाई पराई-सी लगती है। इस चिपकाव का मुख्य कारण यही है कि हमारी श्रद्धा बांझ रह गयी। उसका कोई फल नहीं हुआ। हमने अपने धर्म ग्रन्थों की सच्चाई को महज श्रद्धा तक ही सीमित रखा । स्वानुभूतियों से उसका स्वाद चखा नहीं। अतः हमारे लिए तो सदा शब्द ही सत्य रहे हैं। और जिन शब्दों में यह सच्चाई कही गई है वह हमारी परम्परा के हैं नहीं, इसीलिए हमारे लिए शब्दों के साथ-साथ सच्चाई भी परायी हो गयी है। परन्तु जब हम उसी सच्चाई का स्वयं साक्षात्कार कर लेते हैं तो उसमें परायापन नहीं रह जाता। सत्य तो सत्य है, अलग-अलग कैसे होगा ? संस्कृत, पाली, प्राकृत, हिब्र , अरबी आदि विभिन्न भाषाओं के शब्द, शब्द-सत्य मानने वालों को अलग-अलग लगेंगे । परन्तु इससे जरा आगे बढ़ें और थोड़ा-सा भी बुद्धि का प्रयोग करें तो यह बौद्धिक अनुमान-सत्य कई एक गुत्थियों को