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सम्यक् धर्म
धर्म का सम्यक्त्व है । कोई उपदेशक कहे कि मेरी वाणी को सुन लेने मात्र से अथवा अमुक धर्म ग्रन्थ को पढ़ लेने मात्र से अथवा अमुक दार्शनिक सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने मात्र से तुम्हारी मुक्ति हो जायगी, धर्म धारण न भी करो तो भी कोई अदृश्य सत्ता इसी बात पर तुम पर रीझ कर तुम्हारे सारे पाप धो देगी, तो समझो फिर धर्म सम्यक् नहीं, मिथ्या है, मायावी है ।
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सत्य, स्वच्छ धर्म जीवन में उतरना ही चाहिए - तो ही सम्यक् है, कल्याणप्रद है अन्यथा भ्रामक है, दुखदायी है । जिस किसी को धर्म के सम्यक् स्वरूप का जरा भी बोध हो जाता है वह सदैव इस भ्रांति से बचने का प्रयत्न करता है । धर्म को रूढ़ि पालन और बुद्धि किलोल का विषय नहीं बनने देता । सारा बल धारण करने के अभ्यास में ही लगाता है । इस सम्बन्ध में हमारे देश की एक बहुत उज्ज्वल पुरातन कथा है । कुरु प्रदेश का एक बालक, राजकुमार युधिष्ठिर । अन्य राजकुमारों के साथ उसे भी गुरु से दो छोटे-छोटे वाक्यों में धर्म के उपदेश मिले । औरों ने उन वाक्यों को रट कर गुरु महाराज की शाबासी शीघ्र सहज हासिल कर ली। पर उस बालक के लिए तो सम्यक् धर्म ही सही धर्म था । वह उसे धारण करने के अभ्यास में दिन बिताने लगा और इस कारण नासमझ गुरु के कोप का भाजन हुआ । दण्ड मिला सम्यकमार्गी सुबोध राजकुमार को, जबकि दोषी था दुर्बोध आचार्य । पर बेचारा आचार्य भी क्या करता ? रूढ़ियों का, परम्पराओं का शिकार था । छिलकों को धर्म मानने का आदी था । उसके लिए तो धर्म के ये छिलके ही अधिक मूल्यवान थे । इन राजकुमारों को धर्म के कुछ बोल सिखा दूंगा । वे रट कर याद कर लेंगे । घर पर माता-पिता पूछेंगे - पाठशाला में क्या पढ़ा ? तो विद्यार्थी रटे हुए उन धर्म-वाक्यों को तोते की तरह सुना देंगे। मां बाप खुशी में फूल उठेंगे । आचार्य का श्रम सफल माना जाएगा। वह पुरस्कृत होगा । आजीविका सुगमतापूर्वक चलती रहेगी। धर्म पढ़ने-पढ़ाने का यही मूल्य था उसकी नजरों में । धर्म का यह ओछा और छिछला मूल्यांकन न जाने कब से चला आ रहा है । आज भी कायम है और लगता है भविष्य में भी चलता ही रहेगा। पढ़ना, सुनना व याद कर लेने का काम सरल है, पर जीवन में उतारने का काम कठिन है । अत्यन्त कठिन है । इस कठिन को कोई नहीं करना चाहता। यही कारण है कि हम धर्म के नाम पर अधिकतर